वांछित मन्त्र चुनें

परा॒द्य दे॒वा वृ॑जि॒नं शृ॑णन्तु प्र॒त्यगे॑नं श॒पथा॑ यन्तु तृ॒ष्टाः । वा॒चास्ते॑नं॒ शर॑व ऋच्छन्तु॒ मर्म॒न्विश्व॑स्यैतु॒ प्रसि॑तिं यातु॒धान॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

parādya devā vṛjinaṁ śṛṇantu pratyag enaṁ śapathā yantu tṛṣṭāḥ | vācāstenaṁ śarava ṛcchantu marman viśvasyaitu prasitiṁ yātudhānaḥ ||

पद पाठ

परा॑ । अ॒द्य । दे॒वाः । वृ॒जि॒नम् । शृ॒ण॒न्तु॒ । प्र॒त्यक् । ए॒न॒म् । श॒पथाः॑ । य॒न्तु॒ । तृ॒ष्टाः । वा॒चाऽस्ते॑नम् । शर॑वः । ऋ॒च्छ॒न्तु॒ । मर्म॑न् । विश्व॑स्य । ए॒तु॒ । प्रऽसि॑तिम् । या॒तु॒ऽधानः॑ ॥ १०.८७.१५

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:87» मन्त्र:15 | अष्टक:8» अध्याय:4» वर्ग:7» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:7» मन्त्र:15


0 बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) विजय के इच्छुक युद्धकुशल स्वपक्षवाले सैनिक जन या विद्युत् रश्मि पदार्थ अस्त्रप्रयुक्त (वृजिनम्-अद्य परा शृणन्तु) अन्यों के प्राणों को छुड़ानेवाले को नष्ट करनेवाले पापीजन को तुरन्त नष्ट करें (तृष्टाः-शपथाः-एनं प्रत्यक्-एतु) प्राणपोषक अहित प्रलाप इस पापी के प्रति लौट जावें या उल्टे मारें (शरवः) हिंसक बाण (वाचा स्तेनं-मर्मन्-ऋच्छन्तु) वाणी से अपहरणकर्ता के मर्म में प्राप्त हों (यातुधानः-विश्वस्य प्रसितिम्-एतु) यातनाधारक समस्त राष्ट्र के बन्धन को प्राप्त हो ॥१५॥
भावार्थभाषाः - सैनिकजन या अस्त्र में प्रयुक्त विद्युत् आदि पदार्थ पापी को नष्ट करें, दूसरों के प्रति मर्मभेदी अपशब्द उल्टे उसी का नाश करें, समस्त राष्ट्र को पीड़ा देनेवाले बन्धन में डाले जाएँ ॥१५॥
0 बार पढ़ा गया

हरिशरण सिद्धान्तालंकार

हम 'वाचास्तेन' न बनें

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अद्य) = आज (देवा:) = ज्ञान का प्रसार करनेवाले विद्वान् (वृजिनम्) = पाप को (पराशृणन्तु) = दूर शीर्ण करें। ज्ञान की प्राप्ति से पापवृत्ति दूर हो। राष्ट्र में राजा ज्ञान प्रसार का पूर्ण ध्यान करे। इस ज्ञान- प्रसार से ही पापवृत्ति विनष्ट होगी। [२] (तृष्टाः) = अत्यन्त कटु (शपथाः) = [शप आक्रोशे ] अभिशाप (एनम्) = इस कटु शब्द बोलनेवाले को ही (प्रत्यग् यन्तु) = वापिस प्राप्त हों। समझदार मनुष्य गालियों का उत्तर गालियों में नहीं देता और इस प्रकार अपशब्द बोलनेवाले के पास ही उसके अपशब्द लौट जाते हैं। और वस्तुतः (वाचास्तेनम्) = [अमृत वचनं सा० ] वाणी की चोरी करनेवाले, अर्थात् अनृत व कटु शब्द बोलनेवाले इस व्यक्ति को उसके वचन ही (शरवः) = शरतुल्य होकर (मर्मन् ऋच्छन्तु) मर्मस्थलों में प्राप्त हों। [३] इस वाचास्तेन को जहाँ अपने शब्द ही पीड़ाकर हों, वहाँ यह (यातुधानः) = औरों को पीड़ित करनेवाला व्यक्ति (विश्वस्य) = उस सर्वव्यापक प्रभु के [विशति सर्वत्र] (प्रसितिं एतु) = बन्धन को प्राप्त हो । वेद में अन्यत्र कहा है कि 'ये तो पाशा वरुण सप्त- सप्त त्रेधा तिष्ठन्ति विष्पिता सर्वे अनतं वरुणम्' वरुण के पाश अनृतभाषण करनेवाले को बाँधनेवाले हों। यह वाचास्तेन पशु-पक्षियों की योनियों में भटकता हुआ, देर में फिर कभी मनुष्य योनि को प्राप्त करता है। अपने जीवनकाल में भी अपने वचनों से स्वयं कष्ट को प्राप्त करता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - ज्ञान से पाप दूर होता है। ज्ञानी अपशब्दों को न लेकर बोलनेवाले के प्रति ही उनको लौटा देता है ।
0 बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) विजिगीषवो युद्धकुशलाः स्वपक्षिणः सैनिकाः विद्युद्रश्मि-पदार्था अस्त्रप्रयुक्ताः (वृजिनम्-अद्य परा शृणन्तु) अन्येषां प्राणवर्जयितारं पापिनं जनमधुनैव नाशयन्तु (तृष्टाः शपथाः-एनं प्रत्यक्-एतु) प्राणशोषका अहितप्रलापा खल्वेतं पापिनं प्रति गच्छन्तु-प्रातिघातयन्तु (शरवः) हिंसका इषवः (वाचा स्तेनं-मर्मन्-ऋच्छन्तु) वाचा स्तेयकर्मकर्तारं मर्मणि प्राप्नुवन्तु (यातुधानः-विश्वस्य प्रसितिम्-एतु) यातनाधारकः-विश्वस्य राष्ट्रस्य बन्धनं प्राप्नोतु ॥१५॥
0 बार पढ़ा गया

डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Let the divinities break off the crooked, let the cruel curses visit back upon the crooked curser, let the arrows reach the heart core of the thief with the right message, and let the saboteur suffer universal bondage with loss of freedom under the rule of Agni.