पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अद्य) = आज (देवा:) = ज्ञान का प्रसार करनेवाले विद्वान् (वृजिनम्) = पाप को (पराशृणन्तु) = दूर शीर्ण करें। ज्ञान की प्राप्ति से पापवृत्ति दूर हो। राष्ट्र में राजा ज्ञान प्रसार का पूर्ण ध्यान करे। इस ज्ञान- प्रसार से ही पापवृत्ति विनष्ट होगी। [२] (तृष्टाः) = अत्यन्त कटु (शपथाः) = [शप आक्रोशे ] अभिशाप (एनम्) = इस कटु शब्द बोलनेवाले को ही (प्रत्यग् यन्तु) = वापिस प्राप्त हों। समझदार मनुष्य गालियों का उत्तर गालियों में नहीं देता और इस प्रकार अपशब्द बोलनेवाले के पास ही उसके अपशब्द लौट जाते हैं। और वस्तुतः (वाचास्तेनम्) = [अमृत वचनं सा० ] वाणी की चोरी करनेवाले, अर्थात् अनृत व कटु शब्द बोलनेवाले इस व्यक्ति को उसके वचन ही (शरवः) = शरतुल्य होकर (मर्मन् ऋच्छन्तु) मर्मस्थलों में प्राप्त हों। [३] इस वाचास्तेन को जहाँ अपने शब्द ही पीड़ाकर हों, वहाँ यह (यातुधानः) = औरों को पीड़ित करनेवाला व्यक्ति (विश्वस्य) = उस सर्वव्यापक प्रभु के [विशति सर्वत्र] (प्रसितिं एतु) = बन्धन को प्राप्त हो । वेद में अन्यत्र कहा है कि 'ये तो पाशा वरुण सप्त- सप्त त्रेधा तिष्ठन्ति विष्पिता सर्वे अनतं वरुणम्' वरुण के पाश अनृतभाषण करनेवाले को बाँधनेवाले हों। यह वाचास्तेन पशु-पक्षियों की योनियों में भटकता हुआ, देर में फिर कभी मनुष्य योनि को प्राप्त करता है। अपने जीवनकाल में भी अपने वचनों से स्वयं कष्ट को प्राप्त करता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - ज्ञान से पाप दूर होता है। ज्ञानी अपशब्दों को न लेकर बोलनेवाले के प्रति ही उनको लौटा देता है ।