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अ॒वीरा॑मिव॒ माम॒यं श॒रारु॑र॒भि म॑न्यते । उ॒ताहम॑स्मि वी॒रिणीन्द्र॑पत्नी म॒रुत्स॑खा॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

avīrām iva mām ayaṁ śarārur abhi manyate | utāham asmi vīriṇīndrapatnī marutsakhā viśvasmād indra uttaraḥ ||

पद पाठ

अ॒वीरा॑म्ऽइव । माम् । अ॒यम् । श॒रारुः॑ । अ॒भि । म॒न्य॒ते॒ । उ॒त । अ॒हम् । अ॒स्मि॒ । वी॒रिणी॑ । इन्द्र॑ऽपत्नी । म॒रुत्ऽस॑खा । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥ १०.८६.९

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:86» मन्त्र:9 | अष्टक:8» अध्याय:4» वर्ग:2» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:7» मन्त्र:9


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र-उत्तर ध्रुव ! मुझसे श्रेष्ठ ­सुभागवाली सुखप्रद द्रवीभूत प्रजननकर्मकुशल अन्य स्त्री नहीं है। अम्ब-प्रियभाषिणी ! जैसे तू चाहती है, वैसा ही हो सकता है, तेरे मुखादि अङ्ग मुझे हर्षित करते हैं, सुन्दरभुजा हाथ केश जङ्घावाली वीरपत्नी तू हमारे वृषाकपि-सूर्य को नष्ट करना चाहती है, यह पूछता हूँ। हे इन्द्र-उत्तरध्रुवपति ! यह आक्रमणशील मुझे अबला समझता है, मैं इन्द्रपत्नी ध्रुव की पत्नी ध्रुव द्वारा पालित वायुप्रवाह-वायुस्तर मेरे मित्र हैं, उनके द्वारा मैं परिक्रमा करती हूँ, पुरातन काल में जैसे पत्नी यज्ञसमारोह और संग्राम में पति के साथ होती है, वैसे ही मैं भी। अतः विश्व के चालन में मैं यह वीरपत्नी-तेरी पत्नी प्रशस्त कही जाती है। हे प्रिये इन्द्राणि ! मेरी पत्नी, मैं भी नारियों में तुझको अच्छी सुनता हूँ तथा मैं तेरा पति जरावस्था से नहीं मरता हूँ ॥६-११॥
भावार्थभाषाः - गृहस्थ में पति-पत्नी शुभावसर पर और संग्रामसमय साथ रहते हैं। ज्योतिर्विद्या में उत्तरध्रुव के आधार पर व्योमकक्षा रहती है, वह मरुत् स्तरों आकाशीय वातसूत्रों द्वारा गति करती है ॥६-११॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

प्रकृति अवीरा नहीं

पदार्थान्वयभाषाः - [१] 'प्रकृति इतनी आकर्षक है और फिर भी वृषाकपि उससे आकृष्ट नहीं हुआ' यह देखकर प्रकृति क्रुध - सी होती है और कहती है कि (अयं शरारु:) = यह सब वासनाओं का संहार करनेवाला [ प्रकृति की दृष्टि में शरारती] (माम्) = मुझे (अवीरां इव अभिमन्यते) = अवीर-सा मानता है। मैं अवीर थोड़े ही हूँ (उत अहम्) = निश्चय से मैं तो (वीरिणी अस्मि) = उत्कृष्ट वीर पुत्रवाली हूँ । (इन्द्रपत्नी) = इन्द्र की पत्नी हूँ, (मरुत् सखा) = ये मरुत्-प्राण मेरे मित्र हैं और यह तो सब कोई जानता ही है कि मेरा पति (इन्द्रः) = इन्द्र (विश्वस्मात् उत्तरः) = सबसे उत्कृष्ट हैं। ऐसी स्थिति में यह वृषाकपि मेरा निरादर करे' यह कैसे सहन हो सकता है ? [२] यहाँ 'इन्द्रपत्नी' कहकर प्रकृति स्वयं अपने पक्ष को शिथिल कर लेती है । वृषाकपि उसे इन्द्रपत्नी जानकर ही तो अपनी माता के रूप में देखता है । 'मरुत् सखा' शब्द भी बड़ा महत्त्व रखता है। इन मरुतों प्राणों ने ही उसे वासनात्मक जगत् से ऊपर उठाकर इस आकर्षण में फँसने से बचाया है। एवं इन्द्राणी के मित्र ही वृषाकपि को वृषाकपि बनाते हैं । प्रकृति वीरिणी है, प्रकृति का पुत्र वृषाकपि भी वीर बनता है और प्रलोभन में फँसने से बचता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रकृति वीर है। उसका पुत्र वृषाकपि वीर बनकर प्रकृति का सच्चा आदर करता है ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! उत्तरध्रुव ! मत्तः श्रेष्ठा सुभगा सुखप्रदा द्रवीभूता प्रजननकर्मकुशलान्यास्त्री नास्ति, अम्ब ! प्रियभाषिणी ! यथा त्वमिच्छसि तथैव भवितुमर्हति, तव मुखादीन्यङ्गानि मां हर्षयन्ति, हे सुन्दरभुजहस्तकेशजङ्घावति ! वीरपत्नि ! त्वमस्माकं वृषाकपिं किमर्थं हन्तुमिच्छसीति पृच्छामि। हे इन्द्रपते ! अयं शरारुराक्रमणशीलो मामबलां मन्यतेऽपि त्वहमिन्द्रपत्नी मरुतो वायुप्रवाहाः-मम सखायः सन्ति, वायुप्रवाहैः परिक्राम्यामि, पुराकालेऽपि यथा पत्नी यज्ञसम्मेलने सङ्ग्रामे च पत्या सह भवति तथा ह्यहमपि खल्वस्मि, अत एव विश्वस्य चालनेऽहमेषा वीरिणी तव पत्नी प्रशस्ता कथ्यते, इन्द्रवचनम्−हे प्रिये ! इन्द्राणि ! अहमपि नारीषु त्वामिन्द्राणीं सुभगां शृणोमि तथाऽस्यास्तवेन्द्राण्याः पतिरहं जरावस्थया न म्रिये ॥६-११॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - This naughty thinks of me as naught, bereft of the brave, while I am blest with heroes, and I am the creative consort of Indra and friend of the Maruts, stormy troops of the winds of nature.$Indra is supreme over all.