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किम॒यं त्वां वृ॒षाक॑पिश्च॒कार॒ हरि॑तो मृ॒गः । यस्मा॑ इर॒स्यसीदु॒ न्व१॒॑र्यो वा॑ पुष्टि॒मद्वसु॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kim ayaṁ tvāṁ vṛṣākapiś cakāra harito mṛgaḥ | yasmā irasyasīd u nv aryo vā puṣṭimad vasu viśvasmād indra uttaraḥ ||

पद पाठ

किम् । अ॒यम् । त्वाम् । वृ॒षाक॑पिः । च॒कार॑ । हरि॑तः । मृ॒गः । यस्मै॑ । इ॒र॒स्यसि॑ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । नु । अ॒र्यः । वा॒ । पु॒ष्टि॒ऽमत् । वसु॑ । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥ १०.८६.३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:86» मन्त्र:3 | अष्टक:8» अध्याय:4» वर्ग:1» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:7» मन्त्र:3


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - इन्द्र की उक्ति−(अयम्-अर्यः) यह किरणों का स्वामी (वृषाकपिः-हरितः-मृगः) सूर्य मनोहर सुनहरे मृग ने (त्वां वा पुष्टिमत्-वसु) तेरे प्रति अथवा तेरे पुष्टियुक्त बहुमूल्य धन के प्रति (किं नु-चकार) क्या कर डाला-तेरी या तेरे धन की क्या हानि करी? (यस्मै-इरस्यसि-इत्-उ) जिस सूर्य के लिये तू इर्ष्या कर रही है ॥३॥
भावार्थभाषाः - यह आलङ्कारिक भाषा में कहा जा रहा है, व्योमकक्षा के प्रति या उसकी वस्तुओं के प्रति सूर्य कुछ बिगाड़ करता है, वह बिगाड़ अगले मन्त्र में बताया जा रहा है ॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

हरितो मृगः

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे प्रभो! (अयं वृषाकपिः) = यह वृषाकपि (त्वाम्) = आपकी प्राप्ति का लक्ष्य करके (किं चकार) = क्या करता है ? यही तो करता है कि (हरितः) = यह इन्द्रियों का प्रत्याहरण करनेवाला बनता है । विषयों में जानेवाली इन्द्रियों को विषयों में जाने से रोकता है और (मृगः) = [मृग अन्वेषणे ] आत्मान्वेषण करनेवाला बनता है, आत्मनिरीक्षण करता हुआ अपने दोषों को देखता है । [२] यह आत्मनिरीक्षण करनेवाला और विषयों से अपनी इन्द्रियों को प्रत्याहृत करनेवाला वृषाकपि वह है (यस्या) = जिसके लिये आप (अर्यः) = सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के स्वामी होते हुए (वा उ) = निश्चय से (नु) = अब (पुष्टिमत् वसु) = पुष्टिवाले धन को अथवा पोषण के लिये पर्याप्त धन को (इरस्यसि इत्) = देते ही हैं । वे प्रभु (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली हैं,(विश्वस्मात् उत्तरः)- सब से उत्कृष्ट हैं । 'इस प्रभु की शरण में आने पर पोषक धन की प्राप्ति न हो' यह सम्भव ही नहीं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम आत्मनिरीक्षण करें, इन्द्रियों के विषयों से प्रत्याहृत करें। प्रभु हमें पोषक धन प्राप्त कराएँगे ही।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - इन्द्रोक्तिः−(अयम्-अर्यः-वृषाकपिः-हरितः-मृगः) एष रश्मीनां स्वामी वृषाकपिः सूर्यो मनोहरः सौवर्णो मृगः-इत्यालङ्कारिकं वर्णनं सूर्योऽन्यत्रापि वेदे खलूक्तः “समुद्रादूर्मिमुदयति वेनो…जानन्तो रूपमकृपन्त विप्रा मृगस्य” [ऋ० १०।१२३।४] (त्वां वा पुष्टिमत्-वसु किं नु चकार) त्वां प्रति यद्वा तव पुष्टियुक्तं बहुमूल्यं धनं किं खलु कृतवान् (यस्मै-इरस्यसि-इत्-उ) यस्मै वृषाकपये सूर्याय त्वमीर्ष्यसि हि “इरस् ईर्ष्यायाम्” [कण्ड्वादि] ॥३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - What has this Vrshakapi done to you, this golden green natural, who needs initiation but who is the top master spirit of the created, toward whom you show so much resentment? Indra is supreme over the whole creation.