पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार हमें 'उदङ्' बनना है, 'पुल्वघ' नहीं। यह तभी हो सकता है जब कि हमारी बुद्धि स्थिर रहे । यह बुद्धि मानो मनु की सन्तान है, इसका इसीलिए 'मानवी' यह नाम हो गया है। यह 'मानवी' ही मानव की पत्नी है, उसकी शक्ति है और उसका कल्याण करनेवाली है । यह (ह) = निश्चय से (पर्शुः नाम) = पर्शु इस नामवाली है, यह वासनाओं के लिये सचमुच कुल्हाड़े के समान है [an axe, hetehet] बुद्धि के ठीक कार्य करने पर मनुष्य वासनाओं में नहीं फँसता । [२] यह बुद्धि मनुष्य को वासनाओं से ऊपर उठाकर सभी इन्द्रियों व सभी प्राणों को ठीक रखती है। दसों इन्द्रियों व दसों प्राणों को [प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय] विकसित शक्तिवाला करने के कारण यह बुद्धि इन बीस सन्तानोंवाली हैं, (साकम्) = साथ-साथ (विंशतिम्) = इन बीस को यह (ससूव) = उत्पन्न करती है । [३] हे (भल) = सर्वद्रष्टः प्रभो ! [भल् to see] (त्यस्याः) = उस बुद्धि का (भद्रं अभूत्) = भला हो (यस्या:) = जिसका, हमारी इन वासनाओं के कारण होती हुई दुर्गति को देखकर (उदरं आमयत्) = पेट पीड़ावाला हुआ, अर्थात् जिसको हमारी दुर्गति अखरी । हमारी दुर्गति को देखकर जिसने अच्छा नहीं महसूस किया और हमारी सहायता के लिये सन्नद्ध होकर इन वासनाओं का विनाश किया और अनुभव कराया कि (इन्द्रः) = प्रभु ही (विश्वस्मात् उत्तर:) = सर्वोत्कृष्ट हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - अन्ततः बुद्धि ही कल्याण करती है, यही मानवी है। यह मानव की पत्नी है और उसकी वासनाओं को दूर करके उसे प्रभु की महिमा का दर्शन कराती है। यह सारा सूक्त एक ही भावना को हमारे हृदयों पर अंकित करता है कि प्रभु सर्वोत्कृष्ट हैं । प्रभु प्रवणता ही बुद्धिमत्ता है । इन्द्राणी व प्रकृति को माता समझना नकि पत्नी । ऐसा समझनेवाला ही वृषाकपि बनता है। यह मानवी [बुद्धि] का सखा बनकर वासनाओं से अपना रक्षण करता है । यह रक्षण करनेवाला 'पायु' ही अगले सूक्त का ऋषि है। अपने में शक्ति को भर सकने के कारण यह 'भारद्वाज' है । राक्षसी वृत्तियों को दूर करनेवाला 'रक्षोहा' प्रगतिशील 'अग्नि' इस अग्रिम सूक्त का विषय व देवता है । यह प्रार्थना करता है कि-