वांछित मन्त्र चुनें

यदुद॑ञ्चो वृषाकपे गृ॒हमि॒न्द्राज॑गन्तन । क्व१॒॑ स्य पु॑ल्व॒घो मृ॒गः कम॑गञ्जन॒योप॑नो॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad udañco vṛṣākape gṛham indrājagantana | kva sya pulvagho mṛgaḥ kam agañ janayopano viśvasmād indra uttaraḥ ||

पद पाठ

यत् । उद॑ञ्चः । वृ॒षा॒क॒पे॒ । गृ॒हम् । इ॒न्द्र॒ । अज॑गन्तन । क्व॑ । स्यः । पु॒ल्व॒घः । मृ॒गः । कम् । अ॒ग॒न् । ज॒न॒ऽयोप॑नः । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥ १०.८६.२२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:86» मन्त्र:22 | अष्टक:8» अध्याय:4» वर्ग:4» मन्त्र:7 | मण्डल:10» अनुवाक:7» मन्त्र:22


0 बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वृषाकपे)  हे सूर्य (यत्-उदञ्चः) जब तू उदङ्मुख हुआ उत्तरगोलार्ध में होकर (गृहम्-अजगन्तन) अपने घर को चला जाता है (इन्द्र स्य पुल्वघः) हे उत्तरध्रुव ! वह बहुपक्षी (जनयोपनः-मृगः) जनमोहकमृग-मृग के समान सूर्य (क्व कम्-अगन्) कहाँ किस प्रदेश को चला गया ॥२२॥
भावार्थभाषाः - उत्तरध्रुव की ओर उत्तरायण में होकर सूर्य फिर अपने घर सम्पातबिन्दु में पहुँच जाता है। ज्योतिषी विद्वान् उसकी इस गतिविधि पर विचार करते हैं कि यह ऐसा किस कारण से होता है ? ॥२२॥
0 बार पढ़ा गया

हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'उदङ्', नकि 'पुल्वघ- मृग- जनयोपन'

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (वृषाकपे) = वासनाओं को कम्पित करनेवाले शक्तिशाली जीव ! (यद्) = जब (उदञ्चः) = [उत अञ्च्] लोग उत्कृष्ट मार्ग पर चलनेवाले होते हैं तभी वे (गृहं अजगन्तन) = घर को प्राप्त होते हैं । ब्रह्मलोक ही वस्तुतः इस जीव का घर है । उत्कृष्ट मार्ग पर चलते हुए व्यक्ति इस गृह को प्राप्त करते हैं। [२] परन्तु हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (स्यः) = वह (पुल्वघ) = बहुत पापोंवाला (मृगः) = सदा विलास की वस्तुओं को खोजनेवाला [मृग अन्वेषणे] मौज की तलाश में रहनेवाला व्यक्ति (क्व) = कहाँ इस ब्रह्मलोक रूप गृह में आ पाता है ? (जनयोपनः) = लोगों को पीड़ित [युप्] करनेवाला (कं अगन्) = किसको प्राप्त करता है ? अर्थात् यह (जनयोपन) = अपनी मौज के लिये औरों को मिटानेवाला पुरुष इस ब्रह्मलोक को प्राप्त नहीं करता । उन्नति के मार्ग पर चलनेवाला पुरुष ही जान पाता है कि (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु ही (विश्वस्मात् उत्तरः) = सम्पूर्ण संसार से उत्कृष्ट हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम 'उदङ्' बनें । 'पुल्वघ- मृग- जनयोपन' न बनें।
0 बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वृषाकपे) हे वृषाकपे सूर्य ! (यत्-उदञ्चः-गृहम्-अजगन्तन) यदा त्वमुदङ्मुखः सन् उत्तरगोलार्धं भूत्वा स्वगृहं गतो भवसि (इन्द्र स्य पुल्वघः-जनयोपनः-मृगः क्व कम्-अगन्) हे इन्द्र ! उत्तरध्रुव ! सम्बोध्य पृच्छन्ति ज्ञातुमिच्छन्ति ज्योतिर्विदः-यत् स बहुभक्षी “पुल्वघो बह्वादी” [निरु० १३।३] जनमोहकः सूर्यः कुत्र कं प्रदेशं गतः ॥२२॥
0 बार पढ़ा गया

डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Vrshakapi, O Indra, when the higher souls come rising to the state of peace in the divine home, then where does the sinner, the vexatious and the seeker roaming around go, to what state of life? Great is Indra, supreme over all the world.