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अ॒यमे॑मि वि॒चाक॑शद्विचि॒न्वन्दास॒मार्य॑म् । पिबा॑मि पाक॒सुत्व॑नो॒ऽभि धीर॑मचाकशं॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayam emi vicākaśad vicinvan dāsam āryam | pibāmi pākasutvano bhi dhīram acākaśaṁ viśvasmād indra uttaraḥ ||

पद पाठ

अ॒यम् । ए॒मि॒ । वि॒ऽचाक॑शत् । वि॒ऽचि॒न्वन् । दास॑म् । आर्य॑म् । पिबा॑मि । पा॒क॒ऽसुत्व॑नः । अ॒भि । धीर॑म् । अ॒चा॒क॒श॒म् । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥ १०.८६.१९

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:86» मन्त्र:19 | अष्टक:8» अध्याय:4» वर्ग:4» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:7» मन्त्र:19


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (विचाकशत्) विशेषरूप से प्रकाशमान हुआ (दासम्-आर्यं-विचिन्वन्) दक्षिणगोलार्द्ध और उत्तरगोलार्द्ध को पृथक्-पृथक् करता हुआ वसन्तसमाप्त पर (अयम्-एमि) यह मैं सूर्य आता हूँ (पाकसुत्वनः पिबामि) पकने योग्य ओषधियों में रस देनेवाले चन्द्रमा को पीता हूँ अपनी किरणों से, कृष्णपक्ष में अपने में लीन करता हूँ (धीरम्-अभि-अचाकशम्) पुनः धीवाले-कर्मवाले कर्मप्रद- यज्ञकर्मसूचक चन्द्रमा को फिर प्रकाशित करता हूँ किरणों से शुक्लपक्ष में ॥१९॥
भावार्थभाषाः - सर्वसूर्य ग्रहण से मुक्त होकर प्रकाशमान हुआ वसन्तसमाप्त पर दक्षिण से दक्षिणगोलार्ध और उत्तरगोलार्ध को पृथक्-पृथक् करता हुआ तथा कृष्णपक्ष में चन्द्रमा को अपने ओर छिपा लेता है, शुक्लपक्ष में पुनः प्रकाशित कर देता है ॥१९॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

दास व आर्य का विवेक

पदार्थान्वयभाषाः - [१] वृषाकपि कहता है कि (अयम्) = यह मैं (विचाकशत्) = [कश् to sound] प्रभु के नामों का उच्चारण [जप] करता हुआ (एमि) = आता हूँ, अपने कार्यों में प्रवृत्त होता हूँ। मैं अपने जीवन में (दासम्) = [दसु उपक्षये] नाशक वृत्ति को तथा (आर्यम्) = श्रेष्ठ वृत्ति को (विचिन्वन्) = विविक्त करता हुआ गति करता हूँ । दास वृत्तियों को छोड़ता हुआ आर्य वृत्तियों को अपनाता हूँ। [२] (पाकसुत्वनः) = जीवन के परिपाक के लिये उत्पन्न किये गये सोम का [पाकाय सुतस्य] (पिबामि) = मैं पान करता हूँ । इस सोम को शरीर में ही व्याप्त करने से सब शक्तियों का सुन्दर परिपाक होता है । इस परिपाक से मैं (धीरम्) = उस ज्ञान देनेवाले प्रभु को (अभि अचाकशम्) = प्रातः - सायं स्तुत करता हूँ कि (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (विश्वस्मात् उत्तर:) = सारे संसार से अधिक उत्कृष्ट हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम का शरीर में पान होने पर जीवन की शक्तियों का उत्तम परिपाक होता है । यह व्यक्ति ही प्रभु का स्तवन व दर्शन करता है।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (विचाकशत्) विशिष्टं प्रकाशमानः “विचाकशत्-विशिष्टतया प्रकाशमानः” [ऋ० १।२४।१० दयानन्दः] (दासम्-आर्यं विचिन्वन्) (दक्षिणगोलार्द्धमुत्तरगोलार्द्धं च विभजन्-पृथक् पृथक् कुर्वन् वसन्तसम्पाते (अयम्-एमि) एषोऽहं सूर्य आगच्छामि (पाकसुत्वनः पिबामि) पाकसुत्वानम् “द्वितीयार्थे षष्ठी व्यत्ययेन” पक्तव्येष्वोषधिषु “पाकः पक्तव्यः” [निरु० ३।१२] यो रसं सुनोत्युत्पादयति तं चन्द्रमसं पिबामि रश्मिभिः कृष्णपक्षे (धीरम्-अभि-अचाकशम्) पुनस्ते धीरं कर्मवन्तं कर्मप्रदं यज्ञकर्मसूचकम् “धीः कर्मनाम” [निघ० २।१] ततो मत्वर्थीयो रः प्रत्ययः, चन्द्रमसं पुनरभिप्रकाशयामि रश्मिभिः शुक्लपक्षे “चाकशीमि प्रकाशयामि” [ऋ० ४।५८।६ दयानन्दः] ॥१९॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Perceiving the light of knowledge, building up my score of yajnic action, I come to the omnificent vibrant presence of divinity, and I drink of the nectar of the light and life of purity, eternity and direct realisation of divine communion. Indra is greater than the world of existence.