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अ॒यमि॑न्द्र वृ॒षाक॑पि॒: पर॑स्वन्तं ह॒तं वि॑दत् । अ॒सिं सू॒नां नवं॑ च॒रुमादेध॒स्यान॒ आचि॑तं॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayam indra vṛṣākapiḥ parasvantaṁ hataṁ vidat | asiṁ sūnāṁ navaṁ carum ād edhasyāna ācitaṁ viśvasmād indra uttaraḥ ||

पद पाठ

अ॒यम् । इ॒न्द्र॒ । वृ॒षाक॑पिः । पर॑स्वन्तम् ह॒तम् । वि॒द॒त् । अ॒सिम् । सू॒नाम् । नव॑म् । च॒रुम् । आत् । एध॑स्य । अनः॑ । आऽचि॑तम् । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥ १०.८६.१८

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:86» मन्त्र:18 | अष्टक:8» अध्याय:4» वर्ग:4» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:7» मन्त्र:18


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - फिर ज्योतिष विषय प्रारम्भ होता है−(इन्द्र) हे उत्तरध्रुव ! (अयं वृषाकपिः) यह वृषाकपि-सूर्य (परस्वन्तं हतं विदत्) वराहयु-वन्य कुत्ते को मार सका (असिम्) काटनेवाले शस्त्र तलवार को (सूनाम्) वधस्थान को (नवं चरुम्) प्रत्यग्र विषयुक्त अन्न को (आत्) अनन्तर और (एधस्य-आचितम्-अनः) जलाने के लिये ईंधन के भरे शकट-छकड़े को इन हत्या के साधनों को अपने अधीन कर लिया, न मर पाया, यह आश्चर्य है ॥१८॥
भावार्थभाषाः - आलङ्कारिक ढंग में कहा जाता है कि जितने मारने के साधन हैं शस्त्र, बन्धन, विष, आग में जलना, ये व्यर्थ हो जाते हैं, जिसका कोई अपराध नहीं होता, उसके लिये ऐसा यहाँ दर्शाया गया है ॥१८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अपराधीनता

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो ! आपका (अयम्) = यह पुत्र (वृषाकपिः) = वासनाओं को कम्पित करनेवाला और अतएव शक्तिशाली सन्तान (परस्वन्तम्) = पराधीन को, इन्द्रियों के अधीन हुए हुए पुरुष को (हतं विदत्) = [विद् ज्ञाने] मृत जानता है । इन्द्रियों की अधीनता मृत्यु का ही कारण बनती है । इन्द्रियों को जीतकर ही हम आनन्दमय जीवन को बिता सकते हैं। [२] यह जितेन्द्रिय पुरुष (असिम्) = [असु क्षेपणे] वासनाओं को दूर फेंकने को, (सूनाम्) = [षू प्रेरणे] प्रभु ही प्रेरणा को, इस प्रेरणा से ही तो वह निरन्तर वासनाओं को दूर करने के लिये यत्नशील होता है, (नवं चरुम्) = [नु स्तुतौ, चर भक्षणे] वासनाओं को न उत्पन्न होने देने के लिये ही स्तुत्य भोजन को, राजस व तामस भोजनों को छोड़कर सात्त्विक आहारों को और (आत्) = इनके बाद (एधस्य) = ज्ञानदीप्ति के (आचितम्) = समन्तात् व्याप्तिवाले (अनः) = शरीर रथ को (विदत्) = प्राप्त करता है [विद् लाभे] । [३] ऐसे व्यक्ति ही अनुभव करते हैं कि (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (विश्वस्मात् उत्तरः) = सबसे अधिक उत्कृष्ट हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- इन्द्रियों की पराधीनता नाश का मार्ग है।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - अथ पुनर्ज्योतिर्विषयः प्रस्तूयते−(इन्द्र) हे इन्द्र ! उत्तरध्रुव ! (अयं वृषाकपिः) एष वृषाकपिः सूर्यः (परस्वन्तं हतं विदत्) वराहयुं वन्यश्वानं वृकम् “परस्वतः-मृगविशेषान्” [यजु० २४।२८ दयानन्दः] [अथर्व० ६।७२।२] इत्यत्र पशुमध्ये पठितत्वात् ‘स एव वराहयुः श्वा गृह्यते’ हतं विदत् हतवानित्यर्थः (असिं सूनां नवं चरुम्-आत्-एधस्य-आचितम्-अनः) अस्य यानि हिंसासाधनानि कृतवतीन्द्राण्याहम् “असिं शस्त्रं वधस्थानं प्रत्यग्रं विषयुक्तान्नं ज्वलितकाष्ठस्य पूरितं शकटं तत्सर्वं स्वाधीने प्राप्तवान्” नायं मृत इत्याश्चर्यम् ॥१८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, lord omnipresent and omnipotent, let this Vrshakapi, lover of joyous showers and shaker of thoughts of evil, know and realise that the duality between the self and the super self is ended. Then he will attain the soul inspiring pranic energy, creative intelligence, new spirit of yajnic performance and full achievement of the saving light of divinity.$Indra is supreme over all the world.