पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार प्रभु से रक्षित होकर जो व्यक्ति प्रभु के ध्यान में लगता है और (यस्य) = जिसका (सक्थि) = [सच समवाये] प्रभु से मेलवाला और अतएव (कपृत्) = अपने में आनन्द का पूरण करनेवाला मन (अन्तरा) = अन्दर ही (आरम्बते) = स्थिर होता है, आशय करता है, न स ईशे वह ही ईश नहीं है। (अपितु स इत् ईशे) = वह भी ईश है (निषेदुषः) = नम्रता से आचार्य चरणों में बैठनेवाले (यस्य) = जिसका (रोमशम्) = [रोमशि शेते, 'सामानि यस्य लोमानि'] साम मन्त्रों में निवास करनेवाला मन विजृम्भते विकसित होता है, अर्थात् जिसका मन ऋचाओं व यजुषों का अध्ययन करके साम मन्त्रों में आकर निवास करता है, दूसरे शब्दों में जिसका मन सम्पूर्ण ज्ञान में अवस्थित होता है। [२] जैसे ध्यान महत्त्वपूर्ण है, उसी प्रकार ज्ञान भी महत्त्वपूर्ण है । 'ध्यानी ही ईश बनता है' ऐसी बात नहीं। ज्ञानी भी उतना ही ईश बनता है । 'विद्याभ्यसनं व्यसनं, विद्याभ्यास उत्तम व्यसन हैं। यह मनुष्य को संस्कार के विषयों से बचानेवाला है। ध्यान में मनुष्य मन में एक अद्भुत आनन्द का अनुभव करता है तो ज्ञान में भी मानव मन को पवित्र बनाकर आनन्दित करने की शक्ति है । यह ज्ञानी यह अनुभव करता है कि (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (विश्वस्मात् उत्तर:) = सम्पूर्ण संसार से उत्कृष्ट हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- जहाँ ध्यानी मन का ईश बनता है, वहाँ ज्ञानी भी मन का ईश हो जाता है।