गृह में ही आनन्द का अनुभव
पदार्थान्वयभाषाः - [१] पति-पत्नी को आशीर्वाद देते हुए प्रभु कहते हैं कि (इह एव स्तम्) = तुम दोनों इस घर में ही निवास करनेवाले बनो । (मा वियौष्टम्) = तुम वियुक्त मत हो जाओ। तुम्हारा परस्पर का प्रेम सदा बना रहे । (विश्वं आयुः) = पूर्ण जीवन को (व्यश्नुतम्) = तुम प्राप्त करो। [२] (पुत्रैः) = पुत्रों के साथ (नप्तृभिः) = पौत्रों के साथ (क्रीडन्तौ) = खेलते हुए तुम (स्वे गृहे) = अपने घर में (मोदमानौ) = आनन्दपूर्वक निवास करो। क्रीड़क की मनोवृत्ति बनाकर वर्तने से मनुष्य उलझता तो नहीं पर आनन्द में कमी नहीं आती। इससे विपरीत अवस्था में उलझ जाता है और अपने आनन्द को खो बैठता है । [३] यह भी सम्भव है कि एक व्यक्ति परिस्थितिवश वानप्रस्थ बनने की क्षमता नहीं रखता । वह घर में ही रहे। पर घर में पुत्र-पौत्रों में रहता हुआ उनके साथ क्रीडन करनेवाला हो, आसक्तिवाला नहीं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- पति-पत्नी का सम्बन्ध अटूट है। ये सदा मिलकर चलें, इनका वियोग न हो। पुत्र- पौत्रों के साथ खेलते हुए ये उनमें उलझें नहीं ।