पदार्थान्वयभाषाः - [१] (आच्छद्विधानैः) = समन्तात् अपवारण के तरीकों से, अर्थात् हमारे पर सब ओर से जो वासनाएँ आक्रमण कर रही हैं, उनको दूर रखने के उपायों से (गुपित:) = यह सोम रक्षित होता है । यदि वासनाओं का आक्रमण चलता रहे, तो सोम के रक्षण का सम्भव नहीं होता। [२] (सोमः) = यह सोम [= वीर्य] (बार्हतैः) = वासनाओं के उद्धर्हण के द्वारा (रक्षितः) = रक्षित होता है। जैसे खेत में से एक किसान घास-फूस का उद्बर्हण कर देता है, इसी प्रकार जो व्यक्ति हृदयक्षेत्र में से वासनारूप घास का उद्बर्हण करता है, वही शरीर में सोम का रक्षण करनेवाला होता है । [३] हे सोम ! तू (इत्) = निश्चय से (ग्राव्णाम्) = ज्ञानी स्तोताओं की ज्ञान चर्चाओं को (शृण्वन्) = सुनता हुआ (तिष्ठति) = शरीर में स्थित होता है। जो मनुष्य ज्ञानप्रधान जीवन बिताता है, यह सोम उसकी ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर उसकी ज्ञानाग्नि को दीस करता है । इस प्रकार उपयुक्त हुआ हुआ सोम नष्ट नहीं होता । [४] (पार्थिवः) = पार्थिव भोगों में फँसा हुआ व्यक्ति (ते न अश्नाति) = तेरा सेवन नहीं करता । भोगासक्ति सोम के रक्षण की विरोधिनी है । ये पार्थिव वृत्तिवाले व्यक्ति तो सोमलता के रस के पान को ही सोम-पान समझते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोमरक्षण के लिये वासनाओं को दूर करना आवश्यक है ।