अग्नि के द्वारा 'सम्बन्ध'
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (सूर्याम्) = इस सूर्या को इसके माता-पिता (वहतुना सह) = सम्पूर्ण दहेज के साथ (अग्रे) = पहले (तुभ्यम्) = तेरे लिये (पर्यवहन्) = प्राप्त कराते हैं। माता-पिता को अपनी कन्या को दूसरे घर में भेजते हुए मन में कुछ आशंका का होना स्वाभाविक ही है । वे प्रभु से कहते हैं कि हम तो इसे आपको ही सौंप रहे हैं, आपने ऐसी कृपा करना कि यह ठीक स्थान पर ही जाए। [२] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! हमने इस कन्या को आपको सौंप दिया है। (पुनः) = फिर आप ही अब इन कन्याओं को (पतिभ्यः) = योग्य पतियों के लिये (जायाः दाः) = पत्नी के रूप में दीजिये और ऐसी कृपा करिये कि यह (प्रजया सह) = प्रजा के साथ हो, उत्तम सन्ततिवाली हो। [३] यहाँ 'अग्ने' शब्द आचार्यों के लिये भी प्रयुक्त हुआ है। माता-पिता अपने सन्तानों के आचार्यों पर इस उत्तरदायित्व को डालते हैं कि 'हमने तो आपको सौंप दिया है। आप ही अब योग्य पतियों को सौंपने की व्यवस्था कीजिये'। इस व्यवस्था में आचार्य उन सन्तानों के गुण-दोषों को अधिक अच्छी तरह जानने के कारण अधिक ठीक सम्बन्ध करा पाते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- कन्याओं के विवाह सम्बन्ध आचार्यों के माध्यम से होने पर सम्बन्ध के अनौचित्य की आशंका नितान्त कम हो जाती है।