विवाहित के लिये प्रार्थना, अविवाहित का ध्यान
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अतः) = इस विवाहित कन्या को चिन्ता से (उत् ईर्ष्व) = तू ऊपर उठ । तू तो यही प्रार्थना कर कि हे (विश्वावसो) = सबके बसानेवाले प्रभो ! (त्वा) = आपको (नमसा) = नम्रता के साथ (ईडामहे) = स्तुत करते हैं । [२] अब इस विवाहित कन्या के भार को पति की सुबुद्धि पर छोड़कर आप (अन्याम्) = दूसरी (प्रफर्व्यम्) = [प्रफर्वी = a woman having excellent hips or going in a graceful wey] बृहन्नितम्ब-हंसवारणगामिनी युवति कन्या को (इच्छ) = रक्षित करने की इच्छा करिये और उसे (जायाम्) = पत्नी के रूप में पत्ये पति के लिये (सं सृज) = संसृष्ट करिए, पिता को चाहिए कि विवाहित कन्या के विषय में बहुत दखल न देते रहें, प्रभु पर विश्वास रखें कि वे उसके पति को सुबुद्धि देंगे और सब कार्य ठीक से चलेगा। पिता अधिक हस्ताक्षेप करते रहें तो पतिगृहवालों को यह ठीक नहीं लगता और वह युवति भी वस्तु-स्थिति को न समझती हुई छोटी-छोटी बातों से रुष्ट हो पितृमुखापेक्षी बनी रहती है। पति-पत्नी के प्रेम में कमी आ जाती है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- 'विवाहित कन्या के लिये केवल प्रार्थना करना और अविवाहित की पूरी चिन्ता करना' यह माता-पिता का कर्त्तव्य है ।