पति व पिता का कर्त्तव्य-विभाग
पदार्थान्वयभाषाः - [१] जब कन्या विवाहित होकर चली जाती है तो कन्या के पिता के लिये कहते हैं कि अब अतः इस कन्या की ओर से (उत् ईर्ष्या) = बाहर [out = उत्] गतिवाले होइये । अर्थात् इस कन्या के विषय में बहुत न सोचते रहिये । (एषा) = यह (हि) = निश्चय से पतिवती अब प्रशस्त पतिवाली है । वह पति ही इसकी रक्षा आदि के लिये उत्तरदायी है । [२] पिता तो सदा यही निश्चय करें कि (विश्वावसुम्) = उस सबके बसानेवाले प्रभु को (नमसा) = नम्रतापूर्वक (गीर्भिः) = स्तुति-वाणियों से (ईडे) = स्तुति करता हूँ । प्रभु को सबका बसानेवाला समझें, प्रभु इस कन्या के निवास को भी उत्तम बनाएँगे। [३] पिता के लिये कहते हैं कि अब आप (अन्याम्) = दूसरी कन्या के (इच्छ) = रक्षणादि की इच्छा करिये। जो कन्या (पितृषदम्) = पितृकुल में ही विराजमान है, पर (व्यक्ताम्) = प्रादुर्भूत यौवन के चिह्नोंवाली है। [४] (जनुषा) = आपके यहाँ जन्म लेने के कारण (स) = वह (ते भाग:) = आपका कर्त्तव्य भाग है । विवाहित कन्या का रक्षण तो पति करेगा। इस अविवाहित का रक्षण आपने करना है । तस्य विद्धि उस अपने कर्त्तव्य भाग को समझिये ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - विवाहित कन्या का हर समय ध्यान न करके पिता को उसकी दूसरी बहिन का ही ध्यान करना चाहिए। विवाहित कन्या के लिये प्रभु से प्रार्थना करनी ही उचित है कि वे उसके जीवन को सुन्दर बनाये ।