पदार्थान्वयभाषाः - [१] मानव स्वभाव कुछ इस प्रकार का है कि वह एक चीज से कुछ देर बाद ऊब जाता है । 'गृहस्थ में पति-पत्नी परस्पर ऊब न जाएँ' इस दृष्टिकोण से (जायमानः) = अपनी शक्तियों का विकास करता हुआ पति (नवः नवः भवति) = सदा नवीन बना रहता है, उसका जीवन पुराणा- सा हुआ नहीं प्रतीत होता । उसका ज्ञान प्रतिदिन बढ़ता चलता है, स्वभाव को वह अधिकाधिक परिष्कृत बनाता है। कार्यक्षेत्र को कुछ व्यापक बनाने का प्रयत्न करता है। [२] यह (अह्नां केतुः) = दिनों का प्रकाशक होता है। अर्थात् दिनों को प्रकाशमय बनाता है। अधिक से अधिक स्वाध्याय के द्वारा प्रकाशमय जीवनवाला होता है। [३] (उषसां अग्रं एति) = उषाओं के अग्रभाग में आता है, अर्थात् बहुत सवेरे उठकर क्रियामय जीवनवाला बनता है। और (आयन्) = गतिशील होता हुआ (देवेभ्यः) = देवों के लिये (भागम्) = हिस्से को विदधाति विशेषरूप से धारण करनेवाला होता है । अर्थात् यज्ञों को करके यज्ञशेष का सेवन करनेवाला होता है। [५] (चन्द्रमा:) = आह्लादमय मनोवृत्तिवाला होता हुआ (दीर्घं आयुः) = दीर्घ जीवन को प्रतिरते खूब विस्तृत करता है । मन की प्रसन्नता उसे दीर्घ जीवनवाला बनाती है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- स्व- शक्तियों का विकास करता हुआ अपनी नवीनता बनाए रखता है, [ख] स्वाध्याय द्वारा अपने दिनों का प्रकाशमय बनाता है, [ग] बहुत सवेरे उठकर क्रियाओं में प्रवृत्त हो जाता है, [घ] यज्ञों को करके यज्ञशेष का ही सेवन करता है, [ङ] प्रसन्न मनोवृत्तिवाला होता हुआ दीर्घजीवनवाला होता है।