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पू॒र्वा॒प॒रं च॑रतो मा॒ययै॒तौ शिशू॒ क्रीळ॑न्तौ॒ परि॑ यातो अध्व॒रम् । विश्वा॑न्य॒न्यो भुव॑नाभि॒चष्ट॑ ऋ॒तूँर॒न्यो वि॒दध॑ज्जायते॒ पुन॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pūrvāparaṁ carato māyayaitau śiśū krīḻantau pari yāto adhvaram | viśvāny anyo bhuvanābhicaṣṭa ṛtūm̐r anyo vidadhaj jāyate punaḥ ||

पद पाठ

पू॒र्व॒ऽअ॒प॒रम् । च॒र॒तः॒ । मा॒यया॑ । ए॒तौ । शिशू॒ इति॑ । क्रीळ॑न्तौ । परि॑ । या॒तः॒ । अ॒ध्व॒रम् । विश्वा॑नि । अ॒न्यः । भुव॑ना । अ॒भि॒ऽचष्टे॑ । ऋ॒तून् । अ॒न्यः । वि॒ऽदध॑त् । जा॒य॒ते॒ । पुन॒रिति॑ ॥ १०.८५.१८

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:85» मन्त्र:18 | अष्टक:8» अध्याय:3» वर्ग:23» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:7» मन्त्र:18


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (एतौ) ये दोनों वर वधू (मायया) बुद्धि से-स्नेहबुद्धि से (पूर्वापरं चरतः) आगे-पीछे के क्रम से गृहस्थ में विचरण करते हैं (शिशू क्रीडन्तौ) प्रशंसनीय अथवा दो बालकों के समान क्रीड़ा करते हुए (अध्वरं परि यातः) गृहस्थयज्ञ को परिप्राप्त होते हैं (अन्यः) उनमें से वर (विश्वानि भुवना) सब आवश्यक वस्तुओं-कर्मों को (अभिचष्टे) दृष्टिपथ लाता है, एकत्र करता है (अन्यः) वधू (ऋतून् विदधत्) ऋतुधर्मों का सेवन करती हुई (पुनः-जायते) पुनः-पुनः सन्तान उत्पन्न करती है ॥१८॥
भावार्थभाषाः - वर-वधू गृहस्थजीवन में परस्पर स्नेह से बढ़ते हैं। एक-दूसरे के सहारे गृहस्थ आश्रम को श्रेष्ठ बनाएँ, वर या पति गृहस्थ की आवश्यक वस्तुओं तथा कार्यों पर दृष्टिपात कर उन्हें जुटावे, वधू या पत्नी ऋतु के अनुसार सन्तानों के उत्पादन-रक्षण आदि पर ध्यान दे ॥१८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

नव दम्पती का कार्य विभाग

पदार्थान्वयभाषाः - [१] घर में पहुँचकर (एतौ) = ये दोनों (शिशू) = अपनी बुद्धि को स्वाध्याय के द्वारा तीव्र बनानेवाले युवक और युवति (मायया) = अपने प्रज्ञान के द्वारा (पूर्वापरं चरतः) = [पूर्वस्मात् उत्तरं समुद्रं] ब्रह्मचर्य से गृहस्थ में प्रवेश करते हैं । अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रम में ज्ञान का सम्पादन करके अब ये गृहस्थ में प्रवेश करते हैं। ब्रह्मचर्याश्रम प्रथम समुद्र था । उसे तैरकर ये द्वितीय समुद्र में आते हैं । [२] इस (अध्वरम्) = गृहस्थयज्ञ में ये (क्रीडन्तौ) = क्रीड़क की मनोवृत्ति बनाकर (परिभातः) = सब गतियाँ करते हैं । क्रीड़क की मनोवृत्ति के होने पर कष्ट नहीं होते । कष्टों को ये हँसते हुए सहन कर लेते हैं । इस वृत्ति के अभाव में मुसीबत ही मुसीबत लगने लगती है। गृहस्थ को 'अध्वर' इसलिए कहा है कि इसमें यथासंभव अहिंसा व पवित्रता को बनाये रखना है । [३] इन पति-पत्नी में (अन्यः) = एक पति तो (विश्वानि भुवना) = घर में रहनेवाले सब प्राणियों का (अभिचष्टे) = ध्यान करता है [ looks after ]। पति का कार्य रक्षण है। घर में सबकी आवश्यकताओं को पूर्ण करने का कर्त्तव्य पति का होता है । [४] (अन्य:) = गृह नाटक का दूसरा मुख्य पात्र पत्नी (ऋतून् विदधत्) = ऋतुओं को [a period fouonrable for conception] गर्भाधान के लिये उचित समयों को धारण करती हुई (पुनः जायते) = फिर पुत्र के रूप में जन्म लेती है । पत्नी का कार्य उत्कृष्ट सन्तान को जन्म देना है। पति ने उस सन्तान के रक्षण की पूर्ण व्यवस्था करनी है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- समझदार पति-पत्नी क्रीड़क की मनोवृत्ति से गृहस्थ को सुन्दरता से निभाते हैं । पत्नी उत्तम सन्तान को जन्म देती है तो पति उसके रक्षण का उत्तरदायित्व लेता है।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (एतौ मायया पूर्वापरं चरतः) एतौ वरवध्वौ प्रज्ञया परस्परं पूर्वापरक्रमेण वर्तमानौ विचरतः (शिशू क्रीडन्तौ-अध्वरं परि यातः) प्रशंसनीयौ यद्वा शिशू इव क्रीडन्तौ गृहस्थयज्ञं परिप्राप्नुतः (अन्यः) एको वरः (विश्वानि भुवना-अभिचष्टे) सर्वाणि खल्वावश्यकवस्तूनि कार्याणि चाभिपश्यति पुनस्तानि सङ्गृह्णाति (अन्यः) वधूरित्यर्थः (ऋतून् विदधत्) ऋतुधर्मान् सेवमाना (पुनः-जायते) पुनः पुनः पुत्रं जनयति ॥१८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - These two, sun and moon, move on in sequential order by their own power and virtue, playing happily like innocent children and go on participating and contributing to the divine yajna of the cosmos. Of these, one watches and enlightens all regions of the world and the other rises again and again according to the season and thereby setting the seasons in order.