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ऋ॒क्सा॒माभ्या॑म॒भिहि॑तौ॒ गावौ॑ ते साम॒नावि॑तः । श्रोत्रं॑ ते च॒क्रे आ॑स्तां दि॒वि पन्था॑श्चराचा॒रः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ṛksāmābhyām abhihitau gāvau te sāmanāv itaḥ | śrotraṁ te cakre āstāṁ divi panthāś carācāraḥ ||

पद पाठ

ऋ॒क्ऽसा॒माभ्या॑म् । अ॒भिऽहि॑तौ । गावौ॑ । ते॒ । सा॒म॒नौ । इ॒तः॒ । श्रोत्र॑म् । ते॒ । च॒क्रे इति॑ । आ॒स्ता॒म् । दि॒वि । पन्थाः॑ । च॒रा॒च॒रः ॥ १०.८५.११

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:85» मन्त्र:11 | अष्टक:8» अध्याय:3» वर्ग:22» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:7» मन्त्र:11


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ते गावौ) तेरे रथ के दो वृषभ (ऋक्सामाभ्याम्-अभिहितौ) ऋक् और साम स्तुति और शान्त भाव कहे हैं (सामनौ-इतः) समान कक्ष में चलते हैं (श्रोत्रं ते चक्रे-आस्ताम्) गृहस्थरथ के दो चक्र दोनों कान हैं, चक्र की भाँति वार्ता चर्चा को एक-दूसरे तक चलाते हैं (दिवि) सुखप्रद प्रजामनवाले गृहस्थाश्रम में (चराचरः पन्थाः) चेतन जड़ पदार्थसङ्ग्रह मार्ग है ॥११॥
भावार्थभाषाः - गृहस्थ-रथ को स्तुति और शान्त भाव वहन करते हैं, परस्पर एक-दूसरे की स्तुति और शान्ति वर-वधू में होनी चाहिए और परस्पर एक दूसरे के अभिप्राय को सुनना भी आवश्यक है तथा अन्य सामग्री चेतन और जड़ का संग्रह भी होना चाहिए ॥११॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

ज्ञान व श्रद्धा का समन्वय

पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के मनोमय रथ में जुते हुए ते गावौ वे ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप वृषभ (ऋक्सामाभ्याम्) = विज्ञान व उपासना से (अभिहितौ) = प्रेरित हुए हुए थे, अर्थात् इन्द्रियों के सब व्यवहारों में विज्ञान व उपासना का समन्वय था । इसका प्रत्येक कार्य 'ज्ञान व श्रद्धा' के मेल से हो रहा था। इसीलिए ये इन्द्रिय रूप वृषभ (सामनौ) = बड़ी शान्तिवाले होकर (इतः) = गति कर रहे थे । भाव यह है कि सूर्या ज्ञान व श्रद्धा से सम्पन्न होकर शान्तभाव से सब कार्यों को करती थी । [२] (श्रोत्रम्) = कान ही (ते चक्रे) = रथ के वे चक्र (आस्ताम्) = थे । 'चक्र' गति का प्रतीक है, 'श्रोत्र' सुनने का । सूर्या सुनती थी और उसके अनुसार करती थी और उसका यह (चराचरः) = खूब क्रियाशील [भृशंचरति ] (पन्थाः) = जीवन का मार्ग (दिवि) = ज्ञान में आश्रित था । अर्थात् सूर्या की सब क्रियाएँ ज्ञानपूर्वक होती थीं। वह किसी प्रकार के रूढ़िवाद में फँसी हुई न थी ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- 'सूर्या' ज्ञान व श्रद्धा से युक्त होकर शान्तभाव से ज्ञानपूर्वक निरन्तर क्रियामय जीवनवाली है।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ते गावौ-ऋक्सामाभ्याम्-अभिहितौ सामनौ-इतः) तव रथस्य वृषभौ-ऋक्सामनी-स्तुतिशान्तभावौ वर्णितौ स्तः प्रथमार्थे तृतीया छान्दसी समानकक्षौ बद्धौ गच्छतः “’सामानौ समानौ” अन्येषामपि दृश्यते’ [अष्टा० ६।३] दीर्घः (श्रोत्रं ते चक्रे-आस्ताम्) गृहस्थरथस्य ते चक्रे श्रोत्रे स्तः “वचनव्यत्ययेनैकचनम्” (दिवि) सुखप्रदे प्रजामनस्के गृहाश्रमे “दिवि प्रजाव्यवहारे” [ऋ० १।३६।३ दयानन्दः] (पन्थाः-चराचरः) चेतनजडपदार्थसङ्ग्रहस्तव मार्गः ॥११॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Sun and moon, both equal and glorious, yoked and celebrated by Rks and Samans, move the chariot on the new procession. Let revelation of the Word and infinite Space be the movement towards advancement, and let the path be both tumultuous and restful over the moving and the unmoving world unto the light of heaven.