पदार्थान्वयभाषाः - (सः) = वह गत मन्त्र का (त्रितः) = शरीर, मन व बुद्धि तीनों की शक्तियों का विस्तार करनेवाला (पित्र्याणि) = उस परमपिता प्रभु से प्राप्त होनेवाले आयुधानि ज्ञान रूप अस्त्रों को (विद्वान्) = जाननेवाला, अर्थात् ज्ञानशस्त्र के प्रयोग से वासना रूप शत्रुओं को मारनेवाला, (इन्द्रेषितः) = उस परमैश्वर्यवान् प्रभु से प्रेरित हुआ हुआ, (आप्त्यः) = दिव्यगुणों को प्राप्त करने वालों में सर्वोत्तम (अभ्ययुध्यत्) = वासनारूप शत्रुओं से मन में तथा रोगरूप शत्रुओं से शरीर में युद्ध करता है। इस युद्ध में विजय प्राप्त करके (त्रिशीर्षाणम्) = शरीर, मन व मस्तिष्क की उन्नति रूप तीन शिखरों वाली (सप्तरश्मि) = 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' इन कान, नासिका, आँख व मुख आदि ज्ञानेन्द्रिय रूप सात ऋषियों की ज्ञान किरणों को (जघन्वान्) = खूब ही प्राप्त करता है [हन्- गति], इस प्रकार त्रिविध उन्नति के द्वारा तथा ज्ञानरश्मियों के द्वारा यह (त्रितः) = त्रिविध उन्नति का करनेवाला तथा काम-क्रोध-लोभ तीनों को तैर जानेवाला त्रित (त्वाष्ट्रस्य) = उस निर्माता प्रभु को दी हुई [त्वष्टा एव त्वाष्ट्रः] (गाः) = इन इन्द्रियों को (निः ससृजे) = विषयों के बन्धन से मुक्त करता है। आसुर वृत्तियों ने इन इन्द्रियों को आक्रान्त कर लिया था, पर त्रित इन्द्रियों को असुरों के आक्रमण से बचाता है, उनके बन्धन से छुड़ा लेता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - त्रि प्रभु से ज्ञान रूप शस्त्र को प्राप्त करके आसुर वृत्तियों व रोगों से लड़ता है और त्रिविध उन्नति के शिखर पर पहुँचता है। और सप्त ऋषियों की ज्ञानकिरणों को प्राप्त करके इन्द्रियों को विषय बन्धनों से मुक्त करता है ।