प्रकृति का विचित्र स्वभाव
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हम प्रकृति में देखते हैं कि नाममात्र भी प्रकृति के विषय में हम अपराध करते हैं और प्रकृति एकदम उसका हमें दण्ड देती है । यह अपराध दो प्रकार का है। एक तो यह कि जिन चीजों का प्रयोग करना चाहिए उनका प्रयोग न करें और दूसरा यह कि जिनका प्रयोग नहीं करना चाहिए उनका प्रयोग कर बैठें। पहले अपराध 'त्यज्य' हैं, दूसरे 'एनस्' पहले sins of omission, तथा दूसरे sins of eonamision | ये सब अपराध हमारी अल्पज्ञता व मूर्खता के कारण ही हुआ करते हैं। सो कहते हैं कि हे (अग्ने) = परमात्मन् (अविद्वान्) = अल्पज्ञ होता हुआ मैं (नु) = सब (त्वाम्) = आप से (पृच्छामि) = पूछता हूँ कि मनुष्य (देवेषु) = शरीरस्थ देवों के विषय में (किं) = क्या (त्यजः) = करने योग्य के न करने का पाप तथा (एनः) = न करने योग्य के करने का पाप चकर्थ करता है कि प्रकृति उसे (पर्वशाविचकर्त) = एक-एक पर्व काटती हुई पीड़ा पहुँचाती है, उसी प्रकार (इव) = जैसे कि (असिः गाम्) = तलवार किसी को काटती है। मैं प्रकृति के विषय में गलती कर बैठता हूँ और उस गलती के कारण रोग के रूप में कष्ट को प्राप्त करता हूँ । [२] यह गलतियाँ सामान्यतः चार भागों में बाँटी जा सकती है— [क] (अक्रीडन्) = व्यायाम को बिलकुल न करता हुआ । व्यायाम का बिलकुल न करना पहली गलती है, [ख] (क्रीडन) = हर सम खेलता हुआ। यह व्यायाम की अति है । यह अति व्यायाम भी विविध व्याधियों का कारण बनता है। [ग] (हरि:) = मैं कभी-कभी अन्याय से धन का हरण करनेवाला बनता हूँ [हरणात्] । इस के परिणामरूप मानस अशान्ति को भोगता हूँ और [घ] (अत्तवे अदन्) = खाने के लिये खाने लगता हूँ। खाने के लिये ही खाने लगना सबसे बड़ा दोष है, यह सब प्रकार की अवनतियों का कारण होता है। [३] शरीर में अग्नि का निवास मुख में है, वायु का नासिका में, सूर्य का आँखों में, दिशाओं का कानों में, चन्द्रमा का हृदय में और इस प्रकार सारे देवता इस शरीर में भिन्न-भिन्न स्थानों में रह रहे हैं। इनके विषय में हमारे यही मुख्य रूप से अपराध हैं कि हम [क] व्यायाम बिलकुल नहीं करते, [ख] अतिव्यायाम कर बैठते हैं, [ग] चोरी करके धन जुटाते हैं, [घ] भोगों में फँस जाते हैं। इन अपराधों से देवताओं का हम निरादर करते हैं और यह देवताओं का निरादर हमारे कष्टों का कारण बनता है । उपर्युक्त बातों को छोड़कर इन देवताओं की पूजा ही हमें सुखी बनायेगी।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम अव्यायाम, अतिव्यायाम, धनदासता व स्वाद रूप दोषों से ऊपर उठकर शरीरस्थ देवों के विषय में कोई अपराध न करें जिससे हम स्वस्थ बने रहें ।