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किं दे॒वेषु॒ त्यज॒ एन॑श्चक॒र्थाग्ने॑ पृ॒च्छामि॒ नु त्वामवि॑द्वान् । अक्री॑ळ॒न्क्रीळ॒न्हरि॒रत्त॑वे॒ऽदन्वि प॑र्व॒शश्च॑कर्त॒ गामि॑वा॒सिः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kiṁ deveṣu tyaja enaś cakarthāgne pṛcchāmi nu tvām avidvān | akrīḻan krīḻan harir attave dan vi parvaśaś cakarta gām ivāsiḥ ||

पद पाठ

किम् । दे॒वेषु॑ । त्यजः॑ । एनः॑ । च॒क॒र्थ॒ । अग्ने॑ । पृ॒च्छामि॑ । नु । त्वाम् । अवि॑द्वान् । अक्री॑ळन् । क्रीळ॑न् । हरिः॑ । अत्त॑वे । अ॒दन् । वि । प॒र्व॒ऽशः । च॒क॒र्त॒ । गाम्ऽइ॑व । अ॒सिः ॥ १०.७९.६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:79» मन्त्र:6 | अष्टक:8» अध्याय:3» वर्ग:14» मन्त्र:6 | मण्डल:10» अनुवाक:6» मन्त्र:6


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! तू (देवेषु) जीवन्मुक्त विद्वानों में (त्यजः-एनः) क्रोध तथा पाप (किं चकर्थ) क्या करता है? अर्थात् नहीं करता है (नु-अविद्वान् त्वां पृच्छामि) अविद्वान् होता हुआ तुझ से पूछता हूँ (अक्रीडन् क्रीडन् हरिः) न जानता हुआ या जानता हुआ तू संहर्ता (अत्तवे-अदन्) अपने में ग्रहण करने के लिए ग्रहण करता हुआ (असिः) द्राँती (पर्वशः) टुकड़े-टुकड़े कर (गाम्-इव) अन्न के पौधे को जैसे (विचकर्त) छिन्न-भिन्न कर देती है ॥६॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा जीवन्मुक्त विद्वानों के निमित्त कोई क्रोध या अहित कार्य नहीं करता है। इस बात को अविद्वान् नहीं जान सकता, किन्तु वह जो संसार में जन्मा है, लीलया उसका संहार करके अपने में ले लेता है प्रत्येक अङ्ग का विभाग करके ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

प्रकृति का विचित्र स्वभाव

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हम प्रकृति में देखते हैं कि नाममात्र भी प्रकृति के विषय में हम अपराध करते हैं और प्रकृति एकदम उसका हमें दण्ड देती है । यह अपराध दो प्रकार का है। एक तो यह कि जिन चीजों का प्रयोग करना चाहिए उनका प्रयोग न करें और दूसरा यह कि जिनका प्रयोग नहीं करना चाहिए उनका प्रयोग कर बैठें। पहले अपराध 'त्यज्य' हैं, दूसरे 'एनस्' पहले sins of omission, तथा दूसरे sins of eonamision | ये सब अपराध हमारी अल्पज्ञता व मूर्खता के कारण ही हुआ करते हैं। सो कहते हैं कि हे (अग्ने) = परमात्मन् (अविद्वान्) = अल्पज्ञ होता हुआ मैं (नु) = सब (त्वाम्) = आप से (पृच्छामि) = पूछता हूँ कि मनुष्य (देवेषु) = शरीरस्थ देवों के विषय में (किं) = क्या (त्यजः) = करने योग्य के न करने का पाप तथा (एनः) = न करने योग्य के करने का पाप चकर्थ करता है कि प्रकृति उसे (पर्वशाविचकर्त) = एक-एक पर्व काटती हुई पीड़ा पहुँचाती है, उसी प्रकार (इव) = जैसे कि (असिः गाम्) = तलवार किसी को काटती है। मैं प्रकृति के विषय में गलती कर बैठता हूँ और उस गलती के कारण रोग के रूप में कष्ट को प्राप्त करता हूँ । [२] यह गलतियाँ सामान्यतः चार भागों में बाँटी जा सकती है— [क] (अक्रीडन्) = व्यायाम को बिलकुल न करता हुआ । व्यायाम का बिलकुल न करना पहली गलती है, [ख] (क्रीडन) = हर सम खेलता हुआ। यह व्यायाम की अति है । यह अति व्यायाम भी विविध व्याधियों का कारण बनता है। [ग] (हरि:) = मैं कभी-कभी अन्याय से धन का हरण करनेवाला बनता हूँ [हरणात्] । इस के परिणामरूप मानस अशान्ति को भोगता हूँ और [घ] (अत्तवे अदन्) = खाने के लिये खाने लगता हूँ। खाने के लिये ही खाने लगना सबसे बड़ा दोष है, यह सब प्रकार की अवनतियों का कारण होता है। [३] शरीर में अग्नि का निवास मुख में है, वायु का नासिका में, सूर्य का आँखों में, दिशाओं का कानों में, चन्द्रमा का हृदय में और इस प्रकार सारे देवता इस शरीर में भिन्न-भिन्न स्थानों में रह रहे हैं। इनके विषय में हमारे यही मुख्य रूप से अपराध हैं कि हम [क] व्यायाम बिलकुल नहीं करते, [ख] अतिव्यायाम कर बैठते हैं, [ग] चोरी करके धन जुटाते हैं, [घ] भोगों में फँस जाते हैं। इन अपराधों से देवताओं का हम निरादर करते हैं और यह देवताओं का निरादर हमारे कष्टों का कारण बनता है । उपर्युक्त बातों को छोड़कर इन देवताओं की पूजा ही हमें सुखी बनायेगी।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम अव्यायाम, अतिव्यायाम, धनदासता व स्वाद रूप दोषों से ऊपर उठकर शरीरस्थ देवों के विषय में कोई अपराध न करें जिससे हम स्वस्थ बने रहें ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने देवेषु किं त्यजः-एनः-चकर्थ) हे अग्रणायक परमात्मन् ! देवेषु विद्वत्सु जीवन्मुक्तेषु कथं क्रोधः “त्यजः क्रोधनाम” निघं० (२।१३) तथा पापं न करोषि न कथमपीत्यर्थः (नु-अविद्वान् त्वां पृच्छामि) पुनस्त्वामहमविद्वान् पृच्छामि (अक्रीडन् क्रीडन् हरिः-अत्तवे-अदन्) अजानन्, जानन् संहर्ता स्वस्मिन् ग्रहणाय गृह्णन् सन् (असिः पर्वशः-गाम्-इव विचकर्त) यथा दात्रमन्नतरुम् “अन्नं वै गौः” [श० ४।३।४।२५] प्रतिपर्व छिनत्ति ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - An ignorant man, I ask you, Agni, whether among the divinities, in sport or not in sport, you subject men to sin, anger and aversion, since the omnipotent power, creator and destroyer, to swallow what is to be swallowed at the end, cuts things into particles like a knife cutting leather into pieces.