पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र में वर्णित जबड़ों की अद्भुत रचना के साथ प्रभु ने (शिरः) = सर्वमुख्य अंग मस्तिष्क को (गुहा निहितम्) = एक हड्डियों से बनी हुई गुफा-सी में रख दिया है । वहाँ उस गुफा में यह कितना सुरक्षित विद्यमान है। उस गुफा पर केश रूप घास-फूस के उगने की व्यवस्था से उसका रक्षण और भी सुन्दर हो जाता है । [२] प्रभु ने (ऋषक् अक्षी) = अलग-अलग दो आँखों को रखा है। दो होती हुई भी ये पदार्थों को दो न दिखाकर एक रूप में ही दिखाती हैं। यह भी एक अद्भुत ही रचना की कुशलता है । [३] सिर व आँखों के अतिरिक्त यह जिह्वा भी अद्भुत है । (जिह्वया) = इस जिह्वा से (असिन्वन्) = कभी अतितृप्ति को न अनुभव करता हुआ यह 'सौचीक अग्नि' (वनानि अत्ति) = वानस्पतिक पदार्थों को खाता है । जिह्वा से उनमें एक इस प्रकार का स्राव मिल जाता है जिससे कि उनका पाचन ठीक से हुआ करता है यहाँ कुछ stareh निशास्ता खाण्ड में परिवर्तित हो जाता है । [४] (अस्मै) = इसके लिये (अत्राणि) = भोज्य पदार्थों को (पभिः) = श्रमों के द्वारा, गति के द्वारा (संभरन्ति) = संभृत करते हैं। वस्तुतः पुरुषार्थ से प्राप्त भोजन ही भोजन है । बिना पुरुषार्थ के प्राप्त भोजन अन्ततः विध्वंस का कारण बनता है। (विक्षु) = प्रजाओं में (उत्तानहस्ताः) = ऊपर उठाये हुए हाथोंवाले, अर्थात् पुरुषार्थ में रत पुरुष (नमसा) = नमन के द्वारा, प्रभु के प्रति नम्रभाव को धारण करते हुए इन भोजनों को प्राप्त करते हैं। इन भोजनों में भी ये प्रभु की महिमा को देखते हैं और प्रभु के प्रति नतमस्तक होते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - मस्तिष्क, आँखों व जिह्वा की रचना में भी उस रचयिता की महिमा स्पष्ट है । जिह्वा से हम पुरुषार्थ से प्राप्त वानस्पतिक पदार्थों का ही सेवन करें।