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गुहा॒ शिरो॒ निहि॑त॒मृध॑ग॒क्षी असि॑न्वन्नत्ति जि॒ह्वया॒ वना॑नि । अत्रा॑ण्यस्मै प॒ड्भिः सं भ॑रन्त्युत्ता॒नह॑स्ता॒ नम॒साधि॑ वि॒क्षु ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

guhā śiro nihitam ṛdhag akṣī asinvann atti jihvayā vanāni | atrāṇy asmai paḍbhiḥ sam bharanty uttānahastā namasādhi vikṣu ||

पद पाठ

गुहा॑ । शिरः॑ । निऽहि॑तम् । ऋध॑क् । अ॒क्षी इति॑ । असि॑न्वन् । अ॒त्ति॒ । जि॒ह्वया॑ । वना॑नि । अत्रा॑णि । अ॒स्मै॒ । प॒ट्ऽभिः । सम् । भ॒र॒न्ति॒ । उ॒त्ता॒नऽह॑स्ताः । नम॑सा । अधि॑ । वि॒क्षु ॥ १०.७९.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:79» मन्त्र:2 | अष्टक:8» अध्याय:3» वर्ग:14» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:6» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (शिरः) इस का सिर के समान उत्तम धाम मोक्षरूप (गुहा निहितम्) सूक्ष्म स्थिति में रखा है (अस्मै) इस परमात्मा के लिए (विक्षु-अधि) समस्त प्रजाओं के मध्य (उत्तानहस्ताः) जो उदार हाथवाले-सरलस्वभाववाले (नमसा) स्तुति के द्वारा (पड्भिः) योगाङ्गों से (अत्राणि सम्भरन्ति) स्वकीय अच्छे भोक्तव्य कर्मों का सम्पादन करते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - मुक्तात्माओं का आश्रययोग्य धाम मोक्ष है, जो मनुष्य उदार भावनाओंवाले स्तुति और  योगाङ्गों का सेवन करके उत्तम कर्म करते हैं, वे मोक्ष के भागी बनते हैं ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सिर, आँखें व जिह्वा

पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र में वर्णित जबड़ों की अद्भुत रचना के साथ प्रभु ने (शिरः) = सर्वमुख्य अंग मस्तिष्क को (गुहा निहितम्) = एक हड्डियों से बनी हुई गुफा-सी में रख दिया है । वहाँ उस गुफा में यह कितना सुरक्षित विद्यमान है। उस गुफा पर केश रूप घास-फूस के उगने की व्यवस्था से उसका रक्षण और भी सुन्दर हो जाता है । [२] प्रभु ने (ऋषक् अक्षी) = अलग-अलग दो आँखों को रखा है। दो होती हुई भी ये पदार्थों को दो न दिखाकर एक रूप में ही दिखाती हैं। यह भी एक अद्भुत ही रचना की कुशलता है । [३] सिर व आँखों के अतिरिक्त यह जिह्वा भी अद्भुत है । (जिह्वया) = इस जिह्वा से (असिन्वन्) = कभी अतितृप्ति को न अनुभव करता हुआ यह 'सौचीक अग्नि' (वनानि अत्ति) = वानस्पतिक पदार्थों को खाता है । जिह्वा से उनमें एक इस प्रकार का स्राव मिल जाता है जिससे कि उनका पाचन ठीक से हुआ करता है यहाँ कुछ stareh निशास्ता खाण्ड में परिवर्तित हो जाता है । [४] (अस्मै) = इसके लिये (अत्राणि) = भोज्य पदार्थों को (पभिः) = श्रमों के द्वारा, गति के द्वारा (संभरन्ति) = संभृत करते हैं। वस्तुतः पुरुषार्थ से प्राप्त भोजन ही भोजन है । बिना पुरुषार्थ के प्राप्त भोजन अन्ततः विध्वंस का कारण बनता है। (विक्षु) = प्रजाओं में (उत्तानहस्ताः) = ऊपर उठाये हुए हाथोंवाले, अर्थात् पुरुषार्थ में रत पुरुष (नमसा) = नमन के द्वारा, प्रभु के प्रति नम्रभाव को धारण करते हुए इन भोजनों को प्राप्त करते हैं। इन भोजनों में भी ये प्रभु की महिमा को देखते हैं और प्रभु के प्रति नतमस्तक होते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - मस्तिष्क, आँखों व जिह्वा की रचना में भी उस रचयिता की महिमा स्पष्ट है । जिह्वा से हम पुरुषार्थ से प्राप्त वानस्पतिक पदार्थों का ही सेवन करें।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (शिरः-गुहा निहितम्) अस्य शिरोवदुत्तमं धाममुक्तानामा-श्रयणीयो मोक्षः सूक्ष्मस्थितौ रक्षितम् (अस्मै) एतस्मै परमात्मने (विक्षु-अधि) समस्तासु प्रजासु मध्ये (उत्तानहस्ता) ये सन्ति खलूत्तानहस्ता उदारहस्ताः सरलभावाः (नमसा) स्तुत्या (पड्भिः) योगाङ्गैः (अत्राणि सम्भरन्ति) स्वकीयानि साधुभोक्तव्यानि कर्माणि सम्पादयन्ति ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The highest presence of Agni is hidden in mystery, in the cave of the heart. Its eyes of universal vision are objectified separately in the sun and moon. With its tongue it consumes various things, even the best and most beautiful too, insatiably. In homage to it, yajakas all across humanity bear holy offerings with hands raised in reverence and adoration and bring them step by step for its consumption in the fire and in the crucibles of the discipline of meditation.