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अप॑श्यमस्य मह॒तो म॑हि॒त्वमम॑र्त्यस्य॒ मर्त्या॑सु वि॒क्षु । नाना॒ हनू॒ विभृ॑ते॒ सं भ॑रेते॒ असि॑न्वती॒ बप्स॑ती॒ भूर्य॑त्तः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

apaśyam asya mahato mahitvam amartyasya martyāsu vikṣu | nānā hanū vibhṛte sam bharete asinvatī bapsatī bhūry attaḥ ||

पद पाठ

अप॑श्यम् । अ॒स्य॒ । म॒ह॒तः । म॒हि॒ऽत्वम् । अम॑र्त्यस्य । मर्त्या॑सु । वि॒क्षु । नाना॑ । हनू॒ इति॑ । विभृ॑ते॒ इति॒ विऽभृ॑ते । सम् । भ॒रे॒ते॒ इति॑ । असि॑न्वती॒ इति॑ । बप्स॑ती॒ इति॑ । भूरि॑ । अ॒त्तः॒ ॥ १०.७९.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:79» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:3» वर्ग:14» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:6» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में परमात्मा जीवों के लिए भोगपदार्थ प्रदान करता है, जीवन्मुक्तों के लिए मोक्ष देता है, संसार की उत्पत्ति स्थिति संहार का कारण भी है इत्यादि विषय वर्णित हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य महतः) इस महान्-विभु (अमर्त्यस्य) अविनश्वर परमात्मा के (महित्वम्) महत्त्व-गुण गौरव या स्वरूप को (मर्त्यासु-विक्षु) मरणधर्मी स्थावर जङ्गम प्रजाओं में व्याप्त हुए को (अपश्यम्) मैं साक्षात् करता हूँ या जानता हूँ (नाना-हनू) जिस के भिन्न-भिन्न हनु की भाँति हनन साधन-ग्रहणसाधन सर्वत्र (विभृते सम्भरेते) सब को संगृहीत करते हैं, सम्यक् ले लेते हैं (असिन्वती) वे हननसाधन बन्धनरहित (बप्सती) भक्षण करनेवाले-भक्षणशील (भूरि-अत्तः) बहुत भक्षण कर लेते हैं-संहारकाल में सारी प्रजाओं को परमात्मा भक्षण कर लेता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा महान् है, विभु है, इसका महत्त्व समस्त स्थावर जङ्गम वस्तुओं में व्याप्त है। संहारकाल में सब को अपने अन्दर ले लेता है, इस ऐसे उत्पादक, धारक, संहारक को मानना और उस की उपासना करनी चाहिए ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

जबड़ों की अद्भुत रचना

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अस्य) = इस (अमर्त्यस्य) = कभी न मरनेवाले (महतः) = महान् प्रभु की (महित्वम्) = महिमा को (मर्त्यासु विक्षु) = इन मर्त्य प्रजाओं के अन्दर (अपश्यम्) = देखता हूँ। इन मरणधर्मा शरीरों में क्या अद्भुत ही रचना है। ये (नाना) = अलग-अलग (हनू) = जबड़े (विभृते) = ऊपर और नीचे विभिन्न स्थितियों में धारण किये गये हैं । ये (संभरेते) = विभृत होते हुए भी मिलकर पुरुष का भरण करते हैं । इन्हीं से भोजन का चूर्णन व चर्वण होता है, इस चूर्णन व चर्वण के अभाव में भोजन का पाचन ही नहीं हो पाता । ३२ दाँतों की संख्या से यही संकेत हो रहा है कि कम से कम प्रत्येक ग्रास ३२ बार अवश्य चबाया जाए। [२] (असिन्वती बप्सती) = [ असिन्व imsetiable] अतृप्तिपूर्वक खाते हुए [प्सा भक्षणे] ये जबड़े (भूरि अत्तः) = [भृः धारणपोषणयोः] धारण व पोषण के दृष्टिकोण से ही खाते हैं। ये कभी अति भोजन नहीं खाते, कभी ऐसा नहीं होता कि ये कहा जाए कि ' अरे ! पेट बड़ा भर गया' । वस्तुतः खूब चबाने का अभ्यस्त पुरुष अति- भोजन से बचा ही रहता है। भोजन को इतना चबाया जाए कि वह द्रव बन जाए। इस प्रकार हम इस उक्ति को क्रियान्वित करनेवाले बने कि 'drink your food' ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - शरीर की रचना में यह जबड़ों की रचना बड़ी ही अद्भुत है, ये भोजन को शरीर के पालन व पोषण के योग्य बना देते हैं। इनमें द्रष्टा को प्रभु की महिमा दिखती है।
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ब्रह्ममुनि

अत्र सूक्ते परमात्मा जीवेभ्यो भोगपदार्थान् प्रयच्छति जीवन्मुक्तेभ्यो मोक्षं ददाति, संसारस्योत्पत्तिः स्थितिः संहारकरणं चेत्येवमादयो विषयाः वर्ण्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य महतः-अमर्त्यस्य महित्वम्) एतस्य महद्भूतस्याविनश्वरस्य परमात्मनो महत्त्वं गुणगौरवं स्वरूपं वा (मर्त्यासु विक्षु-अपश्यम्) मरणधर्मिणीषु स्थावरजङ्गमप्रजासु व्याप्तमहं साक्षात् करोमि सम्यक् जानामि वा (नाना हनू विभृते सं भरेते) यस्य भिन्नभिन्नरूपे हनू इव हननसाधने आदानसाधने सर्वत्र सर्वं संगृह्णीतः (असिन्वती बप्सती भूरि-अत्तः) ये ते हनू बन्धनरहिते स्वतन्त्रे प्रतिबन्धरहिते भक्षयन्त्यौ भक्षणशीले अपर्याप्तं भक्षयतः “अत्ता चराचरग्रहणात्” [वेदान्त] संहारकाले सर्वाः प्रजाः भक्षयति स परमात्मा ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - I see and realise the sublime presence of this immortal Agni among mortals whose complementary catalytic powers open and close and open like the jaws of a living being, disjoining and joining together insatiably and relentlessly, creating, destroying and recreating new forms from old ones, and ultimately consume all things thereby consummating and completing the process of evolution back into involution and annilation.