पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (देवाः) = प्राणसाधना से उत्पन्न सब दिव्य गुणो ! (नः) = हमें (सुभागान्) = उत्तम सेवनीय धनोंवाला तथा (सुरत्वान्) = उत्तम शरीरस्थ 'रस, रुधिर, मांस, अस्थि, मज्जा, मेदस् व वीर्य' रूप सप्त रत्नोंवाला (कृणुता) = करिये । [२] हे (वावृधानाः) = वृद्धि को प्राप्त होते हुए (मरुतः) = प्राणो ! (अस्मान् स्तोतॄन् कृणुता) = हमें आप स्तुति की वृत्तिवाला बनाइये। [२] हे मरुतो ! आप (स्तोत्रस्य) = हमारे से किये जाते हुए स्तोत्रों को तथा (सख्यस्य) = मित्रता को (अधिगात) = प्राप्त होवो । हम प्राणों का स्तवन करें और प्राणों की मित्रता को प्राप्त करें। हे प्राणो ! (वः) = आपके (रत्नधेयानि) = हमारे शरीरों में रत्नों की स्थापना रूप कार्य (सनात् हि) = चिरकाल से निश्चयपूर्वक (सन्ति) = हैं । सदा से आप हमारे में रस आदि रत्नों की स्थापना करते हो। आपकी ही कृपा से हमारे जीवनों में इन रत्नों का स्थापन होता है और हम 'सुभाग व सुरत्न' बन पाते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणसाधना हमें सुभाग व सुरत्न बनाती है । गत सूक्त की तरह यह सूक्त भी प्राणसाधना के महत्त्व का सुन्दर प्रतिपादन करता है । अब प्राणसाधना के द्वारा यह 'सौचीक अग्नि वैश्वानर' बनता है, 'सूची शिल्पं अस्य' सूई जिस तरह सी देती है उसी प्रकार मिलानेवाला न कि फाड़नेवाला, प्रगतिशील, विश्वनर हितकारी । 'वैश्वानर' बनने के लिये ही यह 'सप्तिवाजम्भर' बनता है, उपासक [सप् tohonour] व उपासना द्वारा अपने में शक्ति को भरनेवाला । यह सर्वत्र प्रभु की महिमा को देखता है-