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उ॒षसां॒ न के॒तवो॑ऽध्वर॒श्रिय॑: शुभं॒यवो॒ नाञ्जिभि॒र्व्य॑श्वितन् । सिन्ध॑वो॒ न य॒यियो॒ भ्राज॑दृष्टयः परा॒वतो॒ न योज॑नानि ममिरे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uṣasāṁ na ketavo dhvaraśriyaḥ śubhaṁyavo nāñjibhir vy aśvitan | sindhavo na yayiyo bhrājadṛṣṭayaḥ parāvato na yojanāni mamire ||

पद पाठ

उ॒षसा॑म् । न । के॒तवः॑ । अ॒ध्व॒र॒ऽश्रियः॑ । शु॒भ॒म्ऽयवः॑ । न । अ॒ञ्जिऽभिः॑ । वि । अ॒श्वि॒त॒न् । सिन्ध॑वः । न । य॒यियः॑ । भ्राज॑त्ऽऋष्टयः । प॒रा॒ऽवतः॑ । न । योज॑नानि । म॒मि॒रे॒ ॥ १०.७८.७

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:78» मन्त्र:7 | अष्टक:8» अध्याय:3» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:6» मन्त्र:7


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उषसां न केतवः) उषा वेलाओं की किरणें जैसे होती हैं (अध्वरश्रियः) अध्यात्मयज्ञ के आश्रयीभूत अर्थात् अध्यात्मयज्ञप्रचारक (शुभंयवः-न अश्रिभिः) शुभ्र ज्ञानप्रकाश के प्राप्त करानेवाले रश्मियों के समान (अश्वितन्) दीप्त होते हैं (सिन्धवः-न-ययिवः) नदियों की भाँति गति करनेवाले ज्ञानप्रेरक (भ्राजत्-ऋष्टयः) दीप्तज्ञान को स्रवित करनेवाले (परावतः-न योजनानि ममिरे) दूर देश में भी यथायोग्य योजनाओं का निर्माण करते हैं ॥७॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् प्रातर्वेला में किरणों के समान आगे बढ़नेवाले ज्ञान के प्रकाशक, नदियों के समान प्रगतिशील, दूर देशों में भी सफल योजनाओं को सफल बनानेवाले हैं, वे धन्य हैं, उनकी संगति करनी चाहिए ॥७॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अनथक क्रियाशील

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (उषसां केतवः न) = उषाकाल की रश्मियों की तरह ये प्राणसाधक भी ज्ञान की दीसिवाले होते हैं और (अध्वरश्रियः) = यज्ञों का सेवन करनेवाले होते हैं [श्रि सेवायाम्] । प्राणसाधना इन्हें ज्ञानदीप्त यज्ञसेवी बनाती है। [२] (शुभंयवः न) = शुभ को अपने साथ मिश्रित करने की कामनावालों के समान (अञ्जिभि:) = उत्तम गुणरूपी आभरणों से (व्यश्वितन्) = ये दीप्त होते हैं । सदा शुभंयु होते हुए ये गुणों का संचय कर ही पाते हैं। [३] (सिन्धवः न) = नदियों के समान (ययियः) = निरन्तर गतिवाले और गति के कारण ही (भ्राजद् ऋष्टयः) = दीत 'इन्द्रिय, मन व बुद्धि' रूप आयुधोंवाले ये होते हैं । [४] (परावतः न) = [दूराध्वनीना: वडवा इव सा० ] सुदूर मार्ग का आक्रमण करनेवाली घोड़ियों के समान (योजनानि ममिरे) = कितने ही योजनों का, लम्बे मार्गों का परिच्छेदन करनेवाले होते हैं, अर्थात् लम्बे मार्गों को तय करने में थक नहीं जाते।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणसाधक 'ज्ञानदीप्त यज्ञसेवी' बनते हैं, गुणों के आभरणों से अपने को विभूषित करते हैं, गतिशील व दीप्त इन्द्रियादिवाले होते हैं, मार्गों के आक्रमण में थक नहीं जाते ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उषसां न केतवः-अध्वरश्रियः) उषोवेलानां यथा किरणा भवन्ति तद्वत् तेऽध्यात्मयज्ञस्याश्रयीभूता जनेषु सदाध्यात्मयज्ञप्रचारकाः (शुभंयवः-न-अञ्जिभिः-अश्वितन्) शुभ्रं प्रकाशस्य प्रापयितारौ रश्मिभिरिव दीप्यन्ते “श्विता वर्णे” [भ्वादि] “लङि रूपम्” (सिन्धवः-न ययियः) नद्य इव गन्तारो ज्ञानप्रेरकाः (भ्राजत्-ऋष्टयः) दीप्तज्ञानं स्रवन्तः (परावतः न योजनानि ममिरे) दूरदेशे अपि यथायोग्यं योजनानि निर्मान्ति ॥७॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Like lights of the dawn they illuminate the sky and beautify the yajna on earth, themselves shining with graces and wishing the world all well all round. Moving forward like rivers in flood they shine in arms, and like pioneer travellers over boundless woods and spaces they cover miles and miles of distance in progress and achievement.