पदार्थान्वयभाषाः - [१] (उषसां केतवः न) = उषाकाल की रश्मियों की तरह ये प्राणसाधक भी ज्ञान की दीसिवाले होते हैं और (अध्वरश्रियः) = यज्ञों का सेवन करनेवाले होते हैं [श्रि सेवायाम्] । प्राणसाधना इन्हें ज्ञानदीप्त यज्ञसेवी बनाती है। [२] (शुभंयवः न) = शुभ को अपने साथ मिश्रित करने की कामनावालों के समान (अञ्जिभि:) = उत्तम गुणरूपी आभरणों से (व्यश्वितन्) = ये दीप्त होते हैं । सदा शुभंयु होते हुए ये गुणों का संचय कर ही पाते हैं। [३] (सिन्धवः न) = नदियों के समान (ययियः) = निरन्तर गतिवाले और गति के कारण ही (भ्राजद् ऋष्टयः) = दीत 'इन्द्रिय, मन व बुद्धि' रूप आयुधोंवाले ये होते हैं । [४] (परावतः न) = [दूराध्वनीना: वडवा इव सा० ] सुदूर मार्ग का आक्रमण करनेवाली घोड़ियों के समान (योजनानि ममिरे) = कितने ही योजनों का, लम्बे मार्गों का परिच्छेदन करनेवाले होते हैं, अर्थात् लम्बे मार्गों को तय करने में थक नहीं जाते।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणसाधक 'ज्ञानदीप्त यज्ञसेवी' बनते हैं, गुणों के आभरणों से अपने को विभूषित करते हैं, गतिशील व दीप्त इन्द्रियादिवाले होते हैं, मार्गों के आक्रमण में थक नहीं जाते ।