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अश्वा॑सो॒ न ये ज्येष्ठा॑स आ॒शवो॑ दिधि॒षवो॒ न र॒थ्य॑: सु॒दान॑वः । आपो॒ न नि॒म्नैरु॒दभि॑र्जिग॒त्नवो॑ वि॒श्वरू॑पा॒ अङ्गि॑रसो॒ न साम॑भिः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

aśvāso na ye jyeṣṭhāsa āśavo didhiṣavo na rathyaḥ sudānavaḥ | āpo na nimnair udabhir jigatnavo viśvarūpā aṅgiraso na sāmabhiḥ ||

पद पाठ

अश्वा॑सः । न । ये । ज्येष्ठा॑सः । आ॒शवः॑ । दि॒धि॒षवः॑ । न । र॒थ्यः॑ । सु॒ऽदान॑वः । आपः॑ । न । नि॒म्नैः । उ॒दऽभिः॑ । जि॒ग॒त्नवः॑ । वि॒श्वऽरू॑पाः । अङ्गि॑रसः । न । साम॑ऽभिः ॥ १०.७८.५

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:78» मन्त्र:5 | अष्टक:8» अध्याय:3» वर्ग:12» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:6» मन्त्र:5


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो विद्वान् (अश्वासः) विद्या में शीघ्र प्रवेशशील (ज्येष्ठासः:-आशवः-न) श्रेष्ठ घोड़ों के समान हैं (दिधिषवः) ध्यानवान् (रथ्यः-न) रथस्वामियों के समान स्वशरीररथ के स्वामी (सुदानवः) शोभन विद्यादाता (आपः-न) नदियों के समान (निम्नैः-उदभिः) नीचे बहनेवाले जल के समान (जिगत्नवः) ज्ञानप्रवाहक हैं (विश्वरूपाः-अङ्गिरसः-न) स्व ज्ञान के निरूपण करनेवाले सर्वाङ्गशास्त्र ज्ञानप्रेरकों के समान (सामभिः) शान्तभावों से वर्तमान होते हैं ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् विद्या में प्रवेशशील, ध्यानवान्, उपासक, अपने शरीररथ के स्वामी अर्थात् संयमी, नम्र विद्या का प्रवाह चलानेवाले, सब मनुष्यों तक प्रवृत्त होते हैं, उनकी सङ्गति करनी चाहिए ॥५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

संसार को सुन्दर बनानेवाले

पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्राणसाधक पुरुष वे होते हैं (ये) = जो (अश्वासः न) = मार्ग का व्यापन करनेवाले घोड़ों के समान (आशवः) = शीघ्रता से कार्य करनेवाले और अतएव (ज्येष्ठासः) = प्रशस्त जीवनवाले बनते हैं । प्राणसाधना स्फूर्ति को देकर हमारे जीवनों को प्रशस्त बनाती है । [२] ये साधक (दिधिषवः न) = वसुओं के जीवन के धारक तत्त्वों को धारण करनेवालों के समान (रथ्यः) = उत्तम शरीररूप रथवाले तथा (सुदानवः) = [दाप् लवने] शरीर में आ जानेवाली कमियों का खण्डन करनेवाले होते हैं कमियों को दूर करके ये इस रथ को सदा यात्रा के लिये उपयुक्त बनाये रखते हैं । [३] (आपः निम्नैः न) = जल जैसे निम्न मार्गों से गति करते हैं, उसी प्रकार ये साधक (निम्नैः उदभिः जिगत्लवः) = नम्रता की भावना को जगानेवाले रेतःकणों के साथ गतिशील होते हैं। ये अपने में रेत: कणों का रक्षण करते हैं और रक्षित रेतःकण इन्हें नम्र जीवनवाला बनाते हैं । [४] ये साधक (सामभिः) = उपासनाओं के द्वारा (अंगिरसः न) = अंगिरसों के समान, अंगारों की तरह देदीप्यमान पुरुषों के समान, (विश्वरूपा:) = [विश्वं रूपयन्ति] इस विश्व को उत्तम रूप देनेवाले हैं। उपासना से इन्हें शक्ति प्राप्त होती है, ये अग्निरूप प्रभु के समान ही चमक उठते हैं और संसार को उत्तम बनानेवाले होते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-प्राणसाधक 'शीघ्रता से कार्य करनेवाले, बुराइयों का खण्डन करनेवाले, नम्रतापूर्वक गतिशील तथा उपासना से संसार को उत्तम रूप देनेवाले बनते हैं ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ये-अश्वासः-न ज्येष्ठासः-आशवः) ये विद्वांसो विद्यायामाशु प्रवेशशीला ज्येष्ठा अश्वा इव सन्ति (दिधिषवः-रथ्यः-न सुदानवः) ध्यानवन्तः स्वशरीररथस्य स्वामिनः शोभनविद्यादातारः (आपः-न निम्नैः-उदभिः-जिगत्नवः) नद्य इव निम्नैर्जलैरिव ज्ञानप्रवाहका विद्वांसः सन्ति (विश्वरूपाः-अङ्गिरसः-न सामभिः) विश्वं ज्ञानं निरूपयितारः सर्वाङ्गशास्त्रज्ञानस्य प्रेरयितारः शान्तभावैरिव यथा भवितव्यं तथा ॥५॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - They are vibrant winners of the highest order like rays of light in focus, generous givers like commanders of the chariots of plenty and charity, progressive seekers like rivers flowing down to the sea, and versatile workers of theoretical knowledge into practice like the Angiras sages of Atharva Veda realising their hymns with the music of Samans.