पदार्थान्वयभाषाः - [१] जो भी व्यक्ति (सोमं सुन्वन्ति) = सोम का सवन करते हैं, अर्थात् सोम को अपने शरीर में सुरक्षित करते हैं वे (रथिरासः) = उत्तम शरीररूप रथवाले बनते हैं तथा (अद्रयः) = परमेश्वर के उपासक होते हैं । (ते) = वे (गविषः) = [ गो + इष] वेदवाणियों की इच्छा करते हुए (अस्य रसम्) = इस सोम के रस को (निः दुहन्ति) = पूर्णरूप से अपने में पूरित करते हैं । [दुह प्रपूरणे]। सोम का अपने शरीर में ही पूरण करने से मनुष्य की बुद्धि तीव्र होती है, उससे उसे ज्ञान की वाणियाँ सुगमता से बुद्धिगम्य होती हैं । इस सोम के रक्षण से शरीर भी स्वस्थ रहता है और मानसवृत्ति भी उत्तम होकर प्रभु की ओर झुकाववाली बनती है। [२] इसी विचार से (नरः) = प्रगतिशील व्यक्ति (ऊधः दुहन्ति) = वेदवाणी रूप गौ के ऊधस् का दोहन करते हैं, इस ज्ञान प्राप्ति के कार्य में लगे रहने से वे (उपसेचनाय) = शरीर में ही सोम के सेचन के लिये होते हैं। ज्ञान प्राप्ति का व्यसन इन्हें अन्य व्यसनों से बचा देता है और ये वासनाओं का शिकार न होने से सोम का रक्षण कर पाते हैं। शरीर में सोम के सेचन से (कम्) = इन्हें सुख की प्राप्ति होती है। [३] (न) = [च] और सोमरक्षण के उद्देश्य से ये नर (आसभिः) = [असनं आसः] स्वाद आदि की आसक्ति को परे फेंकने से (हव्या वर्जयन्त) = अपनी जाठराग्नि में आहुति देने योग्य पदार्थों को शुद्ध कर डालते हैं। शुद्ध सात्त्विक पदार्थों का ही ये सेवन करते हैं। इन पदार्थों के सेवन से उत्पन्न शीतवीर्य को ये शरीर में सुगमता से स्थापित कर पाते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम के शरीर में रक्षण से [क] शरीर उत्तम बनता है, [ख] मन प्रभु-प्रवण होता है, [ग] बुद्धि तीव्र होकर ज्ञान की वाणियों का दोहन करनेवाली होती है। इसके रक्षण के लिये यह आवश्यक है कि हम जिह्वा का संयम करें।