पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यशसः) = यशस्वी (ग्रावाणः) = ज्ञानोपदेष्टा आचार्य [ग्रावाणः विद्वांसः श० ३ । ९ । ३ । १४] (न:) = हमें (अन्धसः) = सोम के (सोतु) = उत्पादन के द्वारा (भरन्तु) = पोषित करनेवाले हों । इनका उपदेश हमें सोमरक्षण के लिये प्रेरित करके इन्हीं की तरह यशस्वी व ज्ञानी बनाये । सोमरक्षण का परिणाम इनके जीवन में ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ज्ञान के पोषण के रूप में हुआ और कर्मेन्द्रियों के द्वारा यशस्वी कार्यों को सिद्ध करने के रूप में। इसी प्रकार हम भी सोमरक्षण से ज्ञान व यश को प्राप्त करनेवाले हों । [२] ये ज्ञानोपदेष्टा आचार्य (दिवित्मता) = दीप्तिमती, ज्ञान की दीप्तिवाली, (वाचा) = वाणी से (दिविता) = दीप्तिमाता में, ज्ञान के प्रकाश में हमारा धारण करें। इनकी वाणियाँ हमें ज्ञान देनेवाली हों। ये हमें उस ज्ञान के प्रकाश में स्थापित करें, [क] (यत्र) = जहाँ कि (नरः) = प्रगतिशील व्यक्ति (काम्यम्) = चाहने योग्य (मधु) = माधुर्य का (दुहते) = अपने में पूरण करते हैं। ज्ञान से मनुष्य का जीवन मधुर बनता है, उनके जीवन में किसी प्रकार की कटुता नहीं रहती । [ख] इस ज्ञान में स्थापित करें, जिसमें कि नर (अभितः) = दिन के दोनों ओर, अर्थात् प्रातः - सायं (आघोषयन्तः) = प्रभु के गुणों का, स्तुति - वचनों का उच्चारण करनेवाले होते हैं। ज्ञान मनुष्य के अन्दर विशिष्ट भक्ति को पैदा करनेवाला होता है 'ज्ञानाद् ध्यानं विशिष्यते ' । [ग] उस ज्ञान में स्थापित करें जिस ज्ञान से (मिथस्तुरः) = परस्पर मिल करके शीघ्रता से कार्य करनेवाले होते हैं [मिथः त्वरमाण्यः सा० ] ज्ञानी लोग मिलकर अपने-अपने कार्यभाग को सुचारुरूपेण करते हुए कार्यों को शीघ्रता से सिद्ध करनेवाले होते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोमरक्षण से वह ज्ञान प्राप्त होता है जो कि हमारे जीवनों को माधुर्य से पूर्ण बनाता है, हमें प्रभु-प्रवण करता है और मिलकर शीघ्रता से कार्यों को सिद्ध करनेवाला बनाता है ।