पदार्थान्वयभाषाः - [१] 'सिन्धु' शब्द से कहा गया है। यह 'सिन्धुः 'वीर्यशक्ति का पुत्र भूत पुरुष (रथम्) = शरीर रूप रथ को (युयुजे) = जोतता है। यह रथ 'सुखं' उत्तम शोभन द्वारोंवाला है, (अश्विनम्) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाला है । (तेन) = इस उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाले रथ से (अस्मिन् आजौ) = इस जीवन संग्राम में यह (वाजं सनिषद्) = शक्ति व ऐश्वर्य को प्राप्त करता है। [२] (अस्य) = इस शक्ति पुञ्ज पुरुष की महान् (महिमा) = बड़ी महिमा (हि) = निश्चय से (पनस्यते) = सब से प्रशंसित होती है, सब कोई इसके रथ की उत्तमता, शक्ति व ऐश्वर्य का प्रशंसन करता है। यह पुरुष (अदब्धस्य) = अदब्ध होता है अहिंसित होता है, यह दबता नहीं (स्वयशसः) = अपने उत्तम कर्मों के कारण यशस्वी होता है, (विरप्शिन:) = महान् बनता है [विरप्शिन:- महतः नि० ] अथवा विशेष रूप से प्रभु के गुणों का उच्चारण करनेवाला होता है [वि-रप्] ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- वीर्य का संयम करने पर यह संयमी पुरुष 'अदब्ध, स्वयशाः विरप्शी' बनता है । इस सूक्त में वीर्यशक्ति के महत्त्व को बहुत ही उत्तमता से व्यक्ति किया गया है। यह संयमी पुरुष अब 'सर्प' - गतिशील, 'ऐरावत ' = [इरा वेदवाणी] वेदवाणी का ज्ञाता [ज्ञानी] व 'जरत् कर्ण' = स्तुति के शब्दों को ही सदा सुननेवाला, उत्तम स्तोता बनता है। प्रार्थना है कि-