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सु॒खं रथं॑ युयुजे॒ सिन्धु॑र॒श्विनं॒ तेन॒ वाजं॑ सनिषद॒स्मिन्ना॒जौ । म॒हान्ह्य॑स्य महि॒मा प॑न॒स्यतेऽद॑ब्धस्य॒ स्वय॑शसो विर॒प्शिन॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sukhaṁ rathaṁ yuyuje sindhur aśvinaṁ tena vājaṁ saniṣad asminn ājau | mahān hy asya mahimā panasyate dabdhasya svayaśaso virapśinaḥ ||

पद पाठ

सु॒खम् । रथ॑म् । यु॒यु॒जे॒ । सिन्धुः॑ । अ॒श्विन॑म् । तेन॑ । वाज॑म् । स॒नि॒ष॒त् । अ॒स्मिन् । आ॒जौ । म॒हान् । हि । अ॒स्य॒ । म॒हि॒मा । प॒न॒स्यते॑ । अद॑ब्धस्य । स्वऽय॑शसः । वि॒ऽर॒प्शिनः॑ ॥ १०.७५.९

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:75» मन्त्र:9 | अष्टक:8» अध्याय:3» वर्ग:7» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:6» मन्त्र:9


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सिन्धुः) जो सुखों को बहाता है, वह परमात्मा (अश्विनं सुखं रथं-युयुजे) व्यापनेवाले सुखसाधक रमणीय मोक्ष या जगत् को हमारे लिए युक्त करता है (तेन-अस्मिन्-आजौ) उससे इस प्राप्तव्य भोगस्थान में (वाजं सनिषत्) आनन्दभोग को सम्भाजित करता है (अस्य-अदब्धस्य) इस अहिंसित (स्वयशसः-विरप्शिनः) स्वाधार यशवाले महान् परमात्मा की (महान् हि महिमा पनस्यते) ऊँची ही महिमा प्रशस्त की जाती है-गाई जाती है ॥९॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा सुखों को प्रवाहित करनेवाला महान् सिन्धु है। वह हमारे लिए मोक्षानन्द तथा जगत् के सुख को प्रदान करता है, उसकी महिमा महान् है, हमें उसके यश का और गुणों का गान करना चाहिए ॥९॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अदब्ध- स्वयशा:- विरप्शी

पदार्थान्वयभाषाः - [१] 'सिन्धु' शब्द से कहा गया है। यह 'सिन्धुः 'वीर्यशक्ति का पुत्र भूत पुरुष (रथम्) = शरीर रूप रथ को (युयुजे) = जोतता है। यह रथ 'सुखं' उत्तम शोभन द्वारोंवाला है, (अश्विनम्) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाला है । (तेन) = इस उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाले रथ से (अस्मिन् आजौ) = इस जीवन संग्राम में यह (वाजं सनिषद्) = शक्ति व ऐश्वर्य को प्राप्त करता है। [२] (अस्य) = इस शक्ति पुञ्ज पुरुष की महान् (महिमा) = बड़ी महिमा (हि) = निश्चय से (पनस्यते) = सब से प्रशंसित होती है, सब कोई इसके रथ की उत्तमता, शक्ति व ऐश्वर्य का प्रशंसन करता है। यह पुरुष (अदब्धस्य) = अदब्ध होता है अहिंसित होता है, यह दबता नहीं (स्वयशसः) = अपने उत्तम कर्मों के कारण यशस्वी होता है, (विरप्शिन:) = महान् बनता है [विरप्शिन:- महतः नि० ] अथवा विशेष रूप से प्रभु के गुणों का उच्चारण करनेवाला होता है [वि-रप्] ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- वीर्य का संयम करने पर यह संयमी पुरुष 'अदब्ध, स्वयशाः विरप्शी' बनता है । इस सूक्त में वीर्यशक्ति के महत्त्व को बहुत ही उत्तमता से व्यक्ति किया गया है। यह संयमी पुरुष अब 'सर्प' - गतिशील, 'ऐरावत ' = [इरा वेदवाणी] वेदवाणी का ज्ञाता [ज्ञानी] व 'जरत् कर्ण' = स्तुति के शब्दों को ही सदा सुननेवाला, उत्तम स्तोता बनता है। प्रार्थना है कि-
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सिन्धुः) यः स्यन्दते “सिन्धुः-यः स्यन्दते प्रसुवति सुखानि सः परमात्मा” [ऋ० १।११।६ दयानन्दः] (अश्विनं सुखं रथं युयुजे) व्यापनवन्तं सुखं रथं मोक्षं जगद्वा युनक्ति (तेन-अस्मिन्-आजौ वाजं सनिषत्) तेन खल्वस्मिन् प्राप्तव्ये-आनन्दभोगं-अन्नादिभोगस्थाने सम्भाजयति (अस्य-अदब्धस्य स्वयशसः-विरप्शिनः) अस्याहिंसनीयस्य स्वाधारयशस्विनो महतः (महान् हि महिमा पनस्यते) महान् हि महिमा प्रशस्यते ॥९॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Sindhu, spirit of the stream of existence, flows incessantly, riding the cosmic chariot of all joy and comfort, wonderfully dynamic, by which it wins victories of attainments for its devotees and tributaries in this cosmic play. Great is its glory praised and celebrated by poets, undaunted and inviolable, innately glorious, infinitely abundant and generous.