पदार्थान्वयभाषाः - [१] 'सिन्धु' शब्द इस सूक्त में स्यन्दनात्मक होने से वीर्यशक्ति के लिये प्रयुक्त हुआ है। यह वीर्यशक्ति शरीर में सुरक्षित होने पर (स्वश्वा) = उत्तम इन्द्रियरूप अश्वोंवाली है, इन्द्रियों की शक्ति इससे बढ़ी रहती है। यह (सुरथा) = उत्तम शरीर रूप रथवाली है, इससे शरीर रूप रथ में किसी प्रकार की कमी नहीं आती। (सुवासाः) = यह उत्तमता से आच्छादित करनेवाली है, यह रोगों से बचाती है, उसी प्रकार जैसे कि वस्त्र सर्दी-गर्मी से बचाते हैं। (हिरण्ययी) = ज्योतिर्मय है, यह ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर ज्ञान ज्योति को दीप्त करती है। (सुकृता) = उत्तम कर्मोंवाली है। वीर्य का रक्षण होने पर अशुभ कर्मों की ओर प्रवृत्ति नहीं होती। यह शक्ति वाजिनीवती शरीर व मन को सबल बनानेवाली है। [२] (ऊर्णावती) = [ऊर्णू आच्छादने] मन में अशुभ वासनाओं का प्रवेश नहीं होने देती । (युवति:) = अशुभ को दूर करके शुभ से यह हमें युक्त करनेवाली है। सील-मा- वती = [सीर] यह हल व लक्ष्मीवाली है, अर्थात् वीर्य शक्ति के रक्षण के होने पर मनुष्य की वृत्ति श्रमपूर्वक ही धनार्जन की होती है। सील व सीर शब्द 'हल' का वाचक होकर श्रम का संकेत करता है [अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित् कृषस्व] । [३] इस प्रकार हमारे जीवन को सुन्दर बनानेवाली यह वीर्यशक्ति 'सुभगा' है, हमारे जीवन में श्री का वर्धन करनेवाली है यह सुभगा वीर्यशक्ति श्री का वर्धन तो करती ही है, (उत) = और (मधुवृधम्) = मधु का वर्धन करनेवाले प्रभु को (अधिवस्ते) = आधिक्येन धारण करती है। प्रभु को अपना आच्छादक वस्त्र बनाती है, इससे हमारे जीवन में माधुर्य का वर्धन होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- वीर्यशक्ति के रक्षण से शरीर व मन का पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त होता है, ज्ञान-ज्योति दीप्त होती है। श्री की वृद्धि होकर हम माधुर्य का वर्धन करनेवाले प्रभु को प्राप्त करते हैं।