पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (सिन्धो) = [आप] स्पन्दनशील रेतःकण ! (त्व) = तू (प्रथमम्) = सर्वप्रथम (यातवे) = जीवन यात्रा की पूर्ति के लिये (तृष्टामया) = [तृष्टं=harsh, pungent, rugged, hoarse ] तृष्टामा के साथ, कटुता व अभद्रता पर आक्रमण Attack करने की वृत्ति के साथ (सजू:) = संगत हो । संसार में हम भद्र बनकर चलें । [२] तू (सुसर्त्वा) = [सु + सृ गतौ ] उत्तम गति के साथ संगत हो, (रसया) = रसा- रसवती वाणी के साथ संगत हो तथा (त्या श्वेत्या) = उन शुभ कलंकशून्य चित्तवृत्तियों के साथ संगत हो । [३] तू (कु-भया) = कुभा के साथ (गोमतीं कुमुम्) = गोमती क्रुमु को अपने साथ संगत कर । (कु) = पृथिवी, अर्थात् शरीर, (भा) = दीप्ति । शरीर की दीप्ति, अर्थात् तेजस्विता के साथ उत्तम ज्ञान की वाणीवाली [गौ-वाणी] गति [क्रम्] को प्राप्त हो। तेरा शरीर तेजस्वी हो, वाणी प्रशस्त हो और जीवन क्रियामय हो । [४] तू (मेहत्न्वा) [मिह सेचने ] = लोगों पर सुखों के वर्षण की भावना से संगत हो। ये 'तृष्टामा' आदि वृत्तियाँ वे हैं (याभिः) = जिनके साथ (सरथम्) = इस समान शरीर-रथ पर (ईयसे) = आरूढ़ होकर गतिवाला होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ -[क] शरीर में वीर्य के रक्षण होने पर हमें [ख] भद्रता प्राप्त होती है, हमारे कार्यों में कठोरता नहीं होती, [ग] हमारी क्रियाएँ उत्तम होती हैं, [घ] वाणी रसवती और [ङ] चरित्र अकलंक हमें शरीर की तेजस्विता प्राप्त होती है, [छ] प्रशस्त ज्ञानवाणीवाले हम होते हैं, [ज] इस ज्ञानवाणी के अनुसार क्रियाओं को करते हैं, [झ] हमारी ये क्रियाएँ सभी पर सुखों का वर्षण करनेवाली होती हैं ।