पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यत्) = जब (सिन्धुः) = यह बहने के स्वभाववाला रेतस् (वृषभः न) = एक शक्तिशाली बैल के समान (रोरुवत्) = गर्जना करता हुआ रोगों व वासनाओं के प्रति आक्रमण करता है [रोरूयमाणोद्रवति] तो (भूम्या उपरि) = शरीर के ऊपर (दिवि) = मस्तिष्क रूप द्युलोक में (स्वनः) = प्रभु की वाणी (यतते) = [stirshp] प्रेरित हो उठती है। प्रभु की प्रेरणात्मक वाणी [voice of conscience] सुन पड़ती है । शक्तिशाली बैल के समाने कोई खड़ा होने का साहस नहीं करता, सभी भाग खड़े होते हैं । इसी प्रकार इन रेतः कणों के सामने रोग व शत्रु टिके नहीं रह सकते। [२] इस प्रकार इस रेतः रक्षण से (भानुना) = ज्ञान की दीप्ति के साथ (अनन्तं शुष्मम्) = अनन्त शक्ति (उदियर्ति) = उद्गत होती है। रेतः रक्षण के दो परिणाम होते हैं - [क] मस्तिष्क में ज्ञान का प्रकाश और [ख] शरीर में शत्रु- शोषक शक्ति का उदय । [३] इस रेतः रक्षण का तीसरा परिणाम यह होता है कि (इव) = जिस प्रकार (अभ्रात्) = बादल से (वृष्टयः प्र स्तनयन्ति) = गर्जनापूर्वक वृष्टिजल भूमि पर आते हैं, इसी प्रकार शक्ति की ऊर्ध्वगति होने पर धर्ममेघ समाधि में आनन्द के वृष्टिजल बरसने लगते हैं । इन्हीं का वर्णन 'ऊर्ध्वादिक्' के प्रसंग में 'वर्षं इषवः ' इन शब्दों से हुआ है । एवं रेतःकणों की ऊर्ध्वगति शरीर में तीन परिणामों को उत्पन्न करती है - [क] [प्रानुना० ] मस्तिष्क रूप द्युलोक में ज्ञानसूर्य का उदय, [ख] [वृष्टयः ] हृदयान्तरिक्ष में आनन्दजल का वर्षण, [ग] [शुष्मम्] शरीर रूप पृथिवी में अनन्त शक्ति ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - रेतः कणों की ऊर्ध्वगतिवाला ऊर्ध्वरेताः पुरुष 'ज्ञान, आनन्द व शक्ति' का स्वामी बनता है ।