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दि॒वि स्व॒नो य॑तते॒ भूम्यो॒पर्य॑न॒न्तं शुष्म॒मुदि॑यर्ति भा॒नुना॑ । अ॒भ्रादि॑व॒ प्र स्त॑नयन्ति वृ॒ष्टय॒: सिन्धु॒र्यदेति॑ वृष॒भो न रोरु॑वत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

divi svano yatate bhūmyopary anantaṁ śuṣmam ud iyarti bhānunā | abhrād iva pra stanayanti vṛṣṭayaḥ sindhur yad eti vṛṣabho na roruvat ||

पद पाठ

दि॒वि । स्व॒नः । य॒त॒ते॒ । भूम्या॑ । उ॒परि॑ । अ॒न॒न्तम् । शुष्म॑म् । उत् । इ॒य॒र्ति॒ । भा॒नुना॑ । अ॒भ्रात्ऽइ॑व । प्र । स्त॒न॒य॒न्ति॒ । वृ॒ष्टयः॑ । सिन्धुः॑ । यत् । एति॑ । वृ॒ष॒भः । न । रोरु॑वत् ॥ १०.७५.३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:75» मन्त्र:3 | अष्टक:8» अध्याय:3» वर्ग:6» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:6» मन्त्र:3


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (भानुना) अन्तरिक्षस्थ जलसमूह जब विद्युत् के द्वारा (शुष्मम्) बल को-वेग को (उदियर्ति) प्रेरित करता है (दिविः स्वनः-यतते) तब आकाश में इसका शब्द प्राप्त होता है (भूम्या-उपरि) भूमि के ऊपर (अनन्तम्) दूर तक जाता है (अभ्रात्-इव) मेघ से (वृष्टयः स्तनयन्ति) वृष्टियाँ-वर्षाएँ शब्द करती हैं (वृषभः-न) वृषभ की भाँति (रोरुवत्) शब्द करता हुआ (सिन्धुः-यत्-एति) स्यन्दनशील अन्तिरक्षस्थ जलसमूह नीचे आ जाता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - विद्युत् से ताड़ित मेघ का जल शब्द करता हुआ भूमि पर आता है और निम्न स्थान पर दूर तक पहुँचता है, उससे कृषि आदि का लाभ लेना चाहिए ॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

ज्ञान-आनन्द-शक्ति

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यत्) = जब (सिन्धुः) = यह बहने के स्वभाववाला रेतस् (वृषभः न) = एक शक्तिशाली बैल के समान (रोरुवत्) = गर्जना करता हुआ रोगों व वासनाओं के प्रति आक्रमण करता है [रोरूयमाणोद्रवति] तो (भूम्या उपरि) = शरीर के ऊपर (दिवि) = मस्तिष्क रूप द्युलोक में (स्वनः) = प्रभु की वाणी (यतते) = [stirshp] प्रेरित हो उठती है। प्रभु की प्रेरणात्मक वाणी [voice of conscience] सुन पड़ती है । शक्तिशाली बैल के समाने कोई खड़ा होने का साहस नहीं करता, सभी भाग खड़े होते हैं । इसी प्रकार इन रेतः कणों के सामने रोग व शत्रु टिके नहीं रह सकते। [२] इस प्रकार इस रेतः रक्षण से (भानुना) = ज्ञान की दीप्ति के साथ (अनन्तं शुष्मम्) = अनन्त शक्ति (उदियर्ति) = उद्गत होती है। रेतः रक्षण के दो परिणाम होते हैं - [क] मस्तिष्क में ज्ञान का प्रकाश और [ख] शरीर में शत्रु- शोषक शक्ति का उदय । [३] इस रेतः रक्षण का तीसरा परिणाम यह होता है कि (इव) = जिस प्रकार (अभ्रात्) = बादल से (वृष्टयः प्र स्तनयन्ति) = गर्जनापूर्वक वृष्टिजल भूमि पर आते हैं, इसी प्रकार शक्ति की ऊर्ध्वगति होने पर धर्ममेघ समाधि में आनन्द के वृष्टिजल बरसने लगते हैं । इन्हीं का वर्णन 'ऊर्ध्वादिक्' के प्रसंग में 'वर्षं इषवः ' इन शब्दों से हुआ है । एवं रेतःकणों की ऊर्ध्वगति शरीर में तीन परिणामों को उत्पन्न करती है - [क] [प्रानुना० ] मस्तिष्क रूप द्युलोक में ज्ञानसूर्य का उदय, [ख] [वृष्टयः ] हृदयान्तरिक्ष में आनन्दजल का वर्षण, [ग] [शुष्मम्] शरीर रूप पृथिवी में अनन्त शक्ति ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - रेतः कणों की ऊर्ध्वगतिवाला ऊर्ध्वरेताः पुरुष 'ज्ञान, आनन्द व शक्ति' का स्वामी बनता है ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (भानुना शुष्मम्-उदियर्ति) सिन्धुः-अन्तरिक्षस्थजलसमूहो यदा अर्चिषा विद्युता “अजस्रेण भानुना-अजस्रेणार्चिषा” [श० ६।४।१।२] बलं वेगं प्रेरयति (दिवि स्वनः-यतते) तदाऽस्य शब्दः-आकाशे गच्छति “यतते गतिकर्मा” [निघ० २।१४] (भूम्या-उपरि-अनन्तम्) भूम्याः उपरि-अनन्तं दूरपर्यन्तं गच्छतीत्यर्थः “भूम्या” षष्ठ्यर्थे तृतीया व्यत्ययेन (अभ्रात्-इव वृष्टयः स्तनयन्ति) मेघात् ‘इवोऽपि दृश्यते पदपूरणः” [निरु० १।११] खलु वृष्टयः शब्दयन्ति (वृषभः-न-रोरुवत् सिन्धुः-यत्-एति) वृषभ इव भृशं शब्दं कुर्वन् यदा स्यन्दनशीलोऽन्तरिक्षस्थो जलसमूहो नीचैरागच्छति ॥३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - When the force and flood of energy is set in motion by the sun, the rumble of infinite energy shakes the spaces in heaven and the atmosphere on earth. As thunder roars and reverberates from the sky, so do showers fall and the river flood flows resounding like the cloud.