सात देवलोक, आठवाँ मर्त्यलोक
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अदितिः) = अविनाशी प्रकृति (सप्तभिः पुत्रैः) = 'मित्र, वरुण, धाता, अर्यमा, अंश, भग और विवस्वान्' नामक सात पुत्रों से (पूर्व्यं युगम्) = देवलोकों के प्रथम युग को (उप प्रैत्) = समीपता से प्राप्त हुई। अर्थात् पहले प्रकृति से मित्र - वरुण आदि नामवाले सात देव [सौर] लोकों का जन्म हुआ । [२] (पुनः) = फिर (त्वत्) = इस एक आठवें मार्ताण्डम् सूर्य को (प्रजायै) = जन्म के लिये व (मृत्यवे) = मृत्यु के लिये (आभरत्) = आकाश में स्थापित किया । इस मर्त्यलोक के सूर्य की गति से ही दिन-रात का निर्माण होता है, ये दिन और रात हमारे जीवन को एक-एक दिन करके काटते चलते हैं और इस प्रकार मृत्यु का कारण बनते हैं । [३] यहाँ भी यह स्पष्ट है कि सम्भवतः ब्रह्माण्ड ८ सौर लोकों से बना हुआ है इनमें सात सौर लोक तो देवलोक हैं और 'यद् देवेषु आयुषम्'='जो देवों में ३०० वर्ष का आयुष्य है' इस मन्त्र - वाक्य के अनुसार इनमें प्राणियों का आयुष्य ३०० वर्ष का है। इस आठवें सौ वर्ष के आयुष्यवाले लोक को उनकी तुलना में मर्त्यलोक नाम दिया गया है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- पहले सात देवलोक बने । तदुपरान्त आठवाँ मर्त्यलोक । 'लौक्य बृहस्पति' से दृष्ट इस सूक्त में सृष्ट्युत्पत्ति का सुन्दर वर्णन हुआ है। इस सृष्टि में आठवें मार्ताण्डवाले इस मर्त्यलोक में मनुष्य को चाहिये कि वह 'गौरिवीति शाक्त्य' बने । गौरी [=speech वेदवाणी] वेदवाणी ही है वीति-भोजन जिसका, ऐसा शक्ति का पुत्र । 'ज्ञान- सम्पन्न और सबल' ही पुरुष आदर्श है। यही अगले दो सूक्तों का ऋषि है। इसका चित्रण करते हुए प्रभु कहते हैं कि-