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दे॒वानां॑ यु॒गे प्र॑थ॒मेऽस॑त॒: सद॑जायत । तदाशा॒ अन्व॑जायन्त॒ तदु॑त्ता॒नप॑द॒स्परि॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

devānāṁ yuge prathame sataḥ sad ajāyata | tad āśā anv ajāyanta tad uttānapadas pari ||

पद पाठ

दे॒वाना॑म् । पू॒र्व्ये । यु॒गे । अस॑तः । सत् । अ॒जा॒य॒त॒ । तत् । आशाः॑ । अनु॑ । अ॒जा॒य॒न्त॒ । तत् । उ॒त्ता॒नऽप॑दः । परि॑ ॥ १०.७२.३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:72» मन्त्र:3 | अष्टक:8» अध्याय:3» वर्ग:1» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:6» मन्त्र:3


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (देवानां प्रथमे युगे) दिव्यगुणवाले सूर्यादि के प्रथम सृष्टिकाल में (असतः सत्-अजायत) अव्यक्त उपादान प्रकृति से सत्-व्यक्तरूप जगत् उत्पन्न होता है (तत्परि-उत्तानपदः) उसके पश्चात् व्यक्त विकृति से उत्तानपद-संसारवृक्ष उत्पन्न होता है (ततः-आशा-अजायन्त) फिर संसारवृक्ष से दिशाएँ उत्पन्न हुई हैं (उत्तानपदः भूः-जज्ञे) संसार वृक्ष से पृथिवीलोक उत्पन्न होता है (भुवः-आशाः-अजायन्त) पृथिवीलोक से आशावाले-कामनावाले प्राणी उत्पन्न हुए, इस प्रकार (अदितेः-दक्षः) अखण्ड अग्नि से खण्डरूप सूर्य उत्पन्न हुआ (दक्षात्-उ-अदितिः-परि) सूर्य से उषा उत्पन्न होती है ॥३,४॥
भावार्थभाषाः - अव्यक्त उपादन प्रकृति से व्यक्त विकृतिरूप उत्पन्न होता है, फिर संसार उत्पन्न होता है, पुनः दिशाएँ प्रकट होती हैं, पश्चात् पृथिवीलोक, पृथिवीलोक से कामनावाले प्राणी उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार आरम्भसृष्टि में अखण्ड अग्नि से सूर्य और सूर्य से उषा का प्रकाश होता है ॥३,४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

वानस्पतिक युग

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (देवानां युगे प्रथमे) = देवों के निर्माण के इस प्रथम युग में (असतः) = अव्यक्त होने से असत् प्राय प्रकृति से (सत्) = यह आकृतिवाला व्यक्त जगत् (अजायत) = प्रादुर्भूत हो गया । अव्यक्त प्रकृति ने इन व्यक्त सूर्यादि देवों का रूप धारण किया । [२] (तद् अनु) = उसके बाद, अर्थात् इन लोकों के बन जाने के बाद (आशाः) = दिशाएँ (अजायन्त) = प्रादुर्भूत हुई । इन लोकों के बनने से पहले दिशाओं के व्यवहार का सम्भव ही नहीं। इन लोकों में ही यह 'भू' पृथ्वी भी है। इस पर रहनेवाले प्राणी सूर्योदय आदि को देखकर 'प्राची - प्रतीची- उदीची व अवाची' आदि दिशाओं का व्यवहार करते हैं। [३] (तत् परि) = उसके पीछे इस पृथ्वी पर (उत्तानपदः) [ उत्तानाः पद्यन्ते-गच्छन्ति ]= ऊर्ध्वगतिवाले ये वृक्ष वनस्पति प्रादुर्भूत हुए । यही वस्तुतः देवों के युग के बाद का 'वनस्पति युग' है। इस वनस्पति युग में आगे होनेवाले जीवन के धारण के लिये विविध वानस्पतिक रचनाओं का निर्माण हुआ ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - देवयुग के बाद वानस्पतिक युग आया और पृथ्वी पर विविध वनस्पतियों का प्रादुर्भाव हुआ।
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ब्रह्ममुनि

अन्योर्मन्त्रयोरेकवाक्यताऽस्त्यतः सहैव व्याख्यायेते।

पदार्थान्वयभाषाः - (देवानां प्रथमे युगे-असतः सत्-अजायत) दिव्यगुणानां सूर्यादीनां प्रथमे काले-अव्यक्तात्-सदात्मकं व्यक्तरूपं जायते (तत् परि-उत्तानपदः) तत्पश्चात् खलु व्यक्तात्मकाद्विकृतेः-उत्तनपदः-संसारवृक्षो जायते (ततः-आशा-अजायन्त) उत्तानपदः-संसारवृक्षात् खल्वाशा-दिशो जायन्ते “आशा दिङ्नाम” [निघ० १।६] (उत्तानपदः-भूः-जज्ञे) संसारवृक्षादनुभूमिः-पृथिवीलोको जायते (भुवः-आशाः-अजायन्त) पृथिवीलोकात्-आशावन्तो जनाः जायमानाः प्राणिनो जायन्ते, एवम् (अदितेः-दक्षः-दक्षाद्-उ-अदितिः परि) अखण्डितेरग्नेः सूर्योऽग्निः खण्डो जायते, सूर्यादनन्तरमदितिरुषा प्राक्तनी जायते ॥३-४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - In the first age of the devas, the manifest stage of existence arose from the unmanifest Zero stage, i.e., the Zero state emerged into the first positive state of existence after Zero. Then in consequence arose space and the quarters of space. Thereafter arose Uttanapada, the open ended possibilities of boundless evolution further. (The one Vyakta gives rise to potential multiplicity.)