'असत्' का 'सत्' रूप में आना [देव युग ]
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (ब्रह्मणः पतिः) = ज्ञान का पति प्रभु कर्मार इव एक लोहार की तरह (एता) = इन सूर्यादि देवों की आकृतियों को (अधमत्) = प्रकृति पिण्ड को संतप्त करके ढालता था । प्रकृति के द्वारा प्रभु ने सूर्यादि को बनाया । एक लोहार लोहपिण्ड को संतप्त कर के आहत करता है और विविध आकृतियों में उसे परिणत करता है, इसी प्रकार प्रभु ने प्रकृति पिण्ड को संतप्त करके सूर्यादि देवों की आकृति में परिणत किया। [२] (देवानां पूर्व्यं युगे) = इस देवों के निर्माणवाले प्रथम युग में (असतः) = आकृतिशून्य अव्यक्त, असत् प्राय - प्रकृति से सत्-यह आकृतिवाला व्यक्त जगत् (अजायत) = प्रादुर्भूत हो गया । सृष्ट्युत्पत्ति का प्रथम युग वही है जिसमें कि 'असत् प्रकृति' 'सत् सृष्टि' का रूप लेती है, इसमें सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रों का निर्माण हो जाता है और यह 'देव-युग' कहलाता है। इन देवों का निर्माण ज्ञान के पति प्रभु से हुआ है, सो उसके ज्ञान की पूर्णता के कारण इनके निर्माण में भी किसी प्रकार की कमी नहीं। 'पूर्णमदः पूर्णमिदं'- प्रभु पूर्ण हैं, सो सृष्टि भी पूर्ण है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु ने अव्यक्त प्रकृति को व्यक्त सृष्टि का रूप दिया। प्रभु पूर्ण ज्ञानी हैं सो उनकी रचना में भी न्यूनता नहीं है ।