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इ॒मे ये नार्वाङ्न प॒रश्चर॑न्ति॒ न ब्रा॑ह्म॒णासो॒ न सु॒तेक॑रासः । त ए॒ते वाच॑मभि॒पद्य॑ पा॒पया॑ सि॒रीस्तन्त्रं॑ तन्वते॒ अप्र॑जज्ञयः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ime ye nārvāṅ na paraś caranti na brāhmaṇāso na sutekarāsaḥ | ta ete vācam abhipadya pāpayā sirīs tantraṁ tanvate aprajajñayaḥ ||

पद पाठ

इ॒मे । ये । न । अ॒र्वाक् । न । प॒रः । चर॑न्ति । न । ब्रा॒ह्म॒णासः॑ । न । सु॒तेऽक॑रासः । ते । ए॒ते । वाच॑म् । अ॒भि॒ऽपद्य॑ । पा॒पया॑ । सि॒रीः । तन्त्र॑म् । त॒न्व॒ते॒ । अप्र॑ऽजज्ञयः ॥ १०.७१.९

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:71» मन्त्र:9 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:24» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:6» मन्त्र:9


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इमे ये) ये जो (अर्वाङ्-न परः-न चरन्ति) इस लोक के शास्त्र को नहीं वैसे परलोकशास्त्र-अध्यात्मशास्त्र को नहीं जानते हैं (ब्राह्मणासः-न) वे ब्राह्मण नहीं हैं (सुतेकरासः-न) उपासनारसनिष्पादक भी नहीं हैं (ते-एते पापया वाचम् अभिपद्य) वे ये अज्ञानरूप पापभावना से वेदवाणी को प्राप्त करके भी अच्छा फल नहीं प्राप्त करते हैं, किन्तु (अप्रजज्ञयः) अयथार्थ ज्ञानी-यथार्थज्ञानरहित होते हुए (सिरीः-तन्त्रं-तन्वते) बन्धनरूप नाडीवाले कुटुम्ब-सन्तान वंश का विस्तार करते हैं या अपने शरीर को बढ़ाते हैं ॥९॥ 
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य इस लोक के शास्त्र को नहीं जानते तथा न परलोकशास्त्र अर्थात् अध्यात्मशास्त्र को जानते हैं, वे न ब्राह्मण हैं, न उपासक हैं, किन्तु अज्ञानरूप पाप से युक्त हुए केवल सन्तान वंश का या अपने शरीर का ही विस्तार करते हैं ॥९॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

ज्ञानी - यज्ञशील

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (इमे) = ये (ये) = जो (न) = न तो (अर्वाड्) = यहाँ नीचे लौकिक क्षेत्र में ब्राह्मणों के साथ ज्ञानचर्चा करते हुए (चरन्ति) = विचरते हैं और (न) = नां ही (परः) = उत्कृष्ट अध्यात्मक्षेत्र में देवचिन्तन करते हुए देवों के साथ विचरते हैं, वे (न ब्राह्मणासः) = न ज्ञानी बनते हैं और (न) = नां ही (सुतेकरासः) = यज्ञादि को करनेवाले होते हैं । ब्राह्मणों के साथ विचरते, तो उनके साथ ज्ञानचर्या करते हुए ज्ञानी बन जाते । यदि देवों का चिन्तन करते, तो इन सब पदार्थों को देवों से दिया हुआ जानकर, सदा देवों के लिये देकर यज्ञशेष का ही सेवन करते । परन्तु अब ये न तो ज्ञानी बने, न यज्ञशील। [२] (ते एते) = वे ये (अप्रजज्ञयः) = अविद्वान् लोग (वाचम्) = लौकिकी वाणी को ही, 'कहाँ और कब क्या-क्या दुर्घटनाएं हुई' इस प्रकार की व्यर्थ की वाणी को (अभिपद्य) = प्राप्त होकर पापया उस पाप की ओर झुकाव को करनेवाली वाणी से युक्त हुए हुए (सिरी:) = [सीरिणो भूत्वा सा० ] हलोंवाले होकर (तन्त्रम्) = कृषि लक्षण तन्त्र का ही (तन्वते) = विस्तार करते हैं । अर्थात् ये हल ही चलाते रह जाते हैं, अर्थात् खान-पान की दुनियाँ से ऊपर नहीं उठ पाते ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम ब्राह्मणों के सम्पर्क से ज्ञानी बनें, देवों के सम्पर्क से यज्ञशील। केवल लौकिक बातों के ज्ञान में उलझकर खाने-पीने की दुनियाँ में ही न समाप्त हो जाएँ ।
अन्य संदर्भ: सूचना- यहां कृषि की निन्दा अभिप्रेत नहीं । परन्तु खान-पान की दुनियाँ से ऊपर उठना अभिप्रेत है । केवल इस दुनियाँ की ही चर्चा न करते रहकर, कुछ अध्यात्मचर्चा भी करनी ही चाहिए ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इमे ये) एते ये (अर्वाङ् न परः-न चरन्ति) अवरलोकशास्त्रं न तथा परलोकशास्त्रमध्यात्मशास्त्रं न चरन्ति-आचरन्ति-जानन्ति (ब्राह्मणासः-न) ते ब्राह्मणा न (सुतेकरासः-न) उपासनारसनिष्पादका न भवन्ति (ते-एते पापया वाचम्-अभिपद्य) ते खल्वेतेऽज्ञानरूपपापभावनया वाचं प्राप्यापि न सम्यक्फलं प्राप्नुवन्ति किन्तु (अप्रजज्ञयः) असम्यग्ज्ञानिनः-यथार्थज्ञानरहिताः “प्रपूर्वकात्-ज्ञा धातोः किः प्रत्ययः” “आदॄगमहनजनः किकिनौ लिट् च” [अष्टा० ३।२।१७१] सन्तः (सिरीः-तन्त्रं तन्वते) बन्धनरूपनाडीमन्तः सन्तः “सिरासु बन्धनरूपासु नाडीषु” [ऋ० १।१२९।११ दयानन्दः] “छन्दसीवनिपौ मत्वर्थे वा” “कुटुम्बं सन्तानवंशम्” “तन्त्रं कुटुम्बधारणम्” [यजु० १९।८७ दयानन्दः] विस्तारयन्ति यद्वा शरीरमेव वर्धयन्ति ॥९॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Those there are who pursue neither the knowledge of this material world nor the knowledge of the spiritual world, nor are they Brahmanas interested in the holiness of the world of reality, nor even do they follow ritual and worldly life consciously with open mind. So being ignorant people they use only the non holy language of impiety and merely extend the thread of physical existence at the human level in their life.