पदार्थान्वयभाषाः - [१] (इमे) = ये (ये) = जो (न) = न तो (अर्वाड्) = यहाँ नीचे लौकिक क्षेत्र में ब्राह्मणों के साथ ज्ञानचर्चा करते हुए (चरन्ति) = विचरते हैं और (न) = नां ही (परः) = उत्कृष्ट अध्यात्मक्षेत्र में देवचिन्तन करते हुए देवों के साथ विचरते हैं, वे (न ब्राह्मणासः) = न ज्ञानी बनते हैं और (न) = नां ही (सुतेकरासः) = यज्ञादि को करनेवाले होते हैं । ब्राह्मणों के साथ विचरते, तो उनके साथ ज्ञानचर्या करते हुए ज्ञानी बन जाते । यदि देवों का चिन्तन करते, तो इन सब पदार्थों को देवों से दिया हुआ जानकर, सदा देवों के लिये देकर यज्ञशेष का ही सेवन करते । परन्तु अब ये न तो ज्ञानी बने, न यज्ञशील। [२] (ते एते) = वे ये (अप्रजज्ञयः) = अविद्वान् लोग (वाचम्) = लौकिकी वाणी को ही, 'कहाँ और कब क्या-क्या दुर्घटनाएं हुई' इस प्रकार की व्यर्थ की वाणी को (अभिपद्य) = प्राप्त होकर पापया उस पाप की ओर झुकाव को करनेवाली वाणी से युक्त हुए हुए (सिरी:) = [सीरिणो भूत्वा सा० ] हलोंवाले होकर (तन्त्रम्) = कृषि लक्षण तन्त्र का ही (तन्वते) = विस्तार करते हैं । अर्थात् ये हल ही चलाते रह जाते हैं, अर्थात् खान-पान की दुनियाँ से ऊपर नहीं उठ पाते ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम ब्राह्मणों के सम्पर्क से ज्ञानी बनें, देवों के सम्पर्क से यज्ञशील। केवल लौकिक बातों के ज्ञान में उलझकर खाने-पीने की दुनियाँ में ही न समाप्त हो जाएँ ।
अन्य संदर्भ: सूचना- यहां कृषि की निन्दा अभिप्रेत नहीं । परन्तु खान-पान की दुनियाँ से ऊपर उठना अभिप्रेत है । केवल इस दुनियाँ की ही चर्चा न करते रहकर, कुछ अध्यात्मचर्चा भी करनी ही चाहिए ।