पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! तू (अज्र्या) = कृषि से उत्पन्न होनेवाले [अज्र्य=agriculture से होनेवाले] तथा (पर्वत्या) = पर्वतों से उत्पन्न होनेवाले, पर्वतस्थ वनों, पत्थरों व कानों [mines] से उत्पन्न होनेवाले वसूनि निवास के लिये आवश्यक धनों को (संजिगेथ) = सम्यक् विजय करता है तथा (दासा आर्या) = दासों व आर्यों किन्हीं से भी उत्पादित (वृत्राणि) = उपद्रवों को भी जीतनेवाला होता है। किसी से भी किये गये विघ्न को दूर करके तू वसुओं का विजय करता है। इन वसुओं के द्वारा तू अपने जीवन को सुन्दर बनाता है। इन वसुओं का विजय तू कृषि आदि श्रम साध्य कर्मों से ही करता है। [२] (शूर इव धृष्णुः) = एक शूर पुरुष की तरह उन्नति में विघ्नभूत काम- क्रोधादि का तू धर्षण करता है (च्यवनः) = इन शत्रुओं को दूर भगानेवाला होता है। (जनानाम्) = लोगों में जो भी पुरुष (पृतनायून्) = सेना बनकर आक्रमण करनेवाले हैं उनको, हे अग्ने ! (त्वम्) = तू (अभिष्याः) = अभिभूत कर, पराजित करनेवाला हो । आन्तर शत्रुओं का विजय करनेवाला बाह्य शत्रुओं को अवश्य अभिभूत कर पाता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम श्रम से वसुओं का अर्जन करें । काम-क्रोधादि को जीतकर बाह्य शत्रुओं को भी पराजित करनेवाले हों ।