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शश्व॑द॒ग्निर्व॑ध्र्य॒श्वस्य॒ शत्रू॒न्नृभि॑र्जिगाय सु॒तसो॑मवद्भिः । सम॑नं चिददहश्चित्रभा॒नोऽव॒ व्राध॑न्तमभिनद्वृ॒धश्चि॑त् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śaśvad agnir vadhryaśvasya śatrūn nṛbhir jigāya sutasomavadbhiḥ | samanaṁ cid adahaś citrabhāno va vrādhantam abhinad vṛdhaś cit ||

पद पाठ

शश्व॑त् । अ॒ग्निः । व॒ध्रि॒ऽअ॒श्वस्य॑ । शत्रू॑न् । नृऽभिः॑ । जि॒गा॒य॒ । सु॒तसो॑मवत्ऽभिः । सम॑नम् । चि॒त् । अ॒द॒हः॒ । चि॒त्र॒भा॒नो॒ इति॑ चित्रऽभानो । अव॑ । व्राध॑न्तम् । अ॒भि॒न॒त् । वृ॒धः । चि॒त् ॥ १०.६९.११

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:69» मन्त्र:11 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:20» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:6» मन्त्र:11


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वध्र्यश्वस्य शत्रून्) जितेन्द्रिय मनुष्य के कामादि शत्रुओं को (अग्निः) अग्रणायक परमात्मा (नृभिः-सुतसोमवद्भिः) उपासनारस निष्पादक जीवन्मुक्तों के जैसे दोषों को नष्ट करता है, वैसे (शश्वत्-जिगाय) सदा दबाता है (समनं चित्) सम्यक् प्राणवाले-बलवान् को भी (चित्रभानो) हे चायनीय ज्ञान प्रभाववाले ! (अदहः) नष्ट कर (वृधः-चित्) बढ़े-चढ़े (व्राधन्तम्-अवभिनत्) शक्तिशाली विरोधी को भी नष्ट कर ॥११॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा जितेन्द्रिय मनुष्य के कामादि दोषों को और अन्य बढ़े-चढ़े विरोधी प्रभावों या दुर्गुणों को नष्ट करता है ॥११॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सुतसोमवान्-नरों का सम्पर्क

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अग्निः) = वह अग्रेणी प्रभु (शश्वत्) = सदा (वध्र्यश्वस्य) = संयम रज्जु से इन्द्रियाश्वों को बाँधनेवाले पुरुष के (शत्रून्) = काम-क्रोधादि शत्रुओं को (सुतसोमवद्भिः) = प्रशस्त उत्पन्न सोमवाले, अर्थात् शरीर में आहार से रस- रुधिरादि क्रम में उत्पन्न सोम को शरीर में ही सुरक्षित रखनेवाले (नृभिः) = माता, पिता व आचार्य आदि उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले पुरुषों से (जिगाय) = पराजित करता है। प्रभु कृपा से इस वध्र्यश्व को उत्तम संयत जीवनवाले माता, पिता व आचार्य का सम्पर्क प्राप्त होता है। इनके सम्पर्क में इस वध्र्श्व को भी संयमी जीवनवाला बनने में सहायता मिलती है । [२] हे चित्रभानो! अद्भुत दीप्तिवाले प्रभो! आप (समनं चित्) =[सं अनम्] अत्यन्त चेष्टायुक्त, अर्थात् अत्यन्त प्रबल भी क्रोधादि के (अदहः) = भस्मसात् कर देते हैं । (वृधः) = अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त हुए-हुए आप (व्राधन्तं चित्) = बाधक शत्रुओं को (अवाभिनत्) = सुदूर विदीर्ण कर देते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु कृपा से हमें जितेन्द्रिय माता, पिता व आचार्य प्राप्त होते हैं। उनके शिक्षण से हम भी संयमी जीवनवाले होते हैं और प्रबल भी काम-क्रोध आदि शत्रुओं का विदारण करने में समर्थ होते हैं ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वध्र्यश्वस्य शत्रून्) जितेन्द्रियस्य कामादिशत्रून् (अग्निः) अग्रणायकः परमात्मा (नृभिः सुतसोमवद्भिः) उपासनारस-निष्पादकजीवन्मुक्तानां यथा दोषान्नाशयसि तथा ‘विभक्तिव्यत्ययः, उपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारश्च’ (शश्वत् जिगाय) शाश्वतमभिभव (समनं चित्) सम्यक् प्राणवन्तमपि (चित्रभानो) हे चायनीयज्ञानप्रभाववन् ! (अदहः) दग्धीकुरु (वृधः-चित्) प्रवृद्धः सन्नपि (व्राधन्तम्-अवभिनत्) प्रवर्धमानं विरोधिनमपि-अवच्छिन्नं कुरु ॥११॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni, divine leader of light and life, always wins over the enemies of the self-controlled man of dynamic mind and senses by heroic men who distil the soma with faith and reverence and offer it to Agni in homage. O wondrous lord of light and fire, eliminate conflict wherever it be and, yourself rising in glory, break down violence and destruction when it is raising its head.