सुतसोमवान्-नरों का सम्पर्क
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अग्निः) = वह अग्रेणी प्रभु (शश्वत्) = सदा (वध्र्यश्वस्य) = संयम रज्जु से इन्द्रियाश्वों को बाँधनेवाले पुरुष के (शत्रून्) = काम-क्रोधादि शत्रुओं को (सुतसोमवद्भिः) = प्रशस्त उत्पन्न सोमवाले, अर्थात् शरीर में आहार से रस- रुधिरादि क्रम में उत्पन्न सोम को शरीर में ही सुरक्षित रखनेवाले (नृभिः) = माता, पिता व आचार्य आदि उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले पुरुषों से (जिगाय) = पराजित करता है। प्रभु कृपा से इस वध्र्यश्व को उत्तम संयत जीवनवाले माता, पिता व आचार्य का सम्पर्क प्राप्त होता है। इनके सम्पर्क में इस वध्र्श्व को भी संयमी जीवनवाला बनने में सहायता मिलती है । [२] हे चित्रभानो! अद्भुत दीप्तिवाले प्रभो! आप (समनं चित्) =[सं अनम्] अत्यन्त चेष्टायुक्त, अर्थात् अत्यन्त प्रबल भी क्रोधादि के (अदहः) = भस्मसात् कर देते हैं । (वृधः) = अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त हुए-हुए आप (व्राधन्तं चित्) = बाधक शत्रुओं को (अवाभिनत्) = सुदूर विदीर्ण कर देते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु कृपा से हमें जितेन्द्रिय माता, पिता व आचार्य प्राप्त होते हैं। उनके शिक्षण से हम भी संयमी जीवनवाले होते हैं और प्रबल भी काम-क्रोध आदि शत्रुओं का विदारण करने में समर्थ होते हैं ।