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इन्द्रो॑ म॒ह्ना म॑ह॒तो अ॑र्ण॒वस्य॒ वि मू॒र्धान॑मभिनदर्बु॒दस्य॑ । अह॒न्नहि॒मरि॑णात्स॒प्त सिन्धू॑न्दे॒वैर्द्या॑वापृथिवी॒ प्राव॑तं नः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indro mahnā mahato arṇavasya vi mūrdhānam abhinad arbudasya | ahann ahim ariṇāt sapta sindhūn devair dyāvāpṛthivī prāvataṁ naḥ ||

पद पाठ

इन्द्रः॑ । म॒ह्ना । म॒ह॒तः । अ॒र्ण॒वस्य॑ । वि । मू॒र्धान॑म् । अ॒भि॒न॒त् । अ॒र्बु॒दस्य॑ । अह॑न् । अहि॑म् । अरि॑णात् । स॒प्त । सिन्धू॑न् । दे॒वैः । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । प्र । अ॒व॒त॒म् । नः॒ ॥ १०.६७.१२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:67» मन्त्र:12 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:16» मन्त्र:6 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:12


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा या राजा (मह्ना) अपने महत्त्व से (महतः-अर्णवस्य-अर्बुदस्य) महान् ज्ञान समुद्र या वाग्विषय के (मूर्धानं वि-अभिनत्) सर्वोपरि विराजमान वेद को विशेषरूप से उद्घाटित करता है (अहिम्-अहन्) मेघ के समान ज्ञान के आच्छादक अज्ञानान्धकार का हनन करता है (सप्त सिन्धून्-अरिणात्) सात स्यन्दमान छन्दोरूप मन्त्रों को प्रवाहित-प्रचारित करता है (देवैः-द्यावापृथिवी नः प्रावतम्) विद्वानों के साथ सभा और प्रजा हमारी रक्षा करें ॥१२॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा अपनी महती शक्ति से विज्ञानसागर, वाग्विद्या के मूर्द्धारूप वेद को प्रकट करता है। उसका प्रचार राजा को करना चाहिए। वेद अज्ञानान्धकार को दूर करते हैं, वे सात छन्दों से युक्त प्रवाहित होते हैं, राजसभा और प्रजागण को सब प्रकार से सुखप्रद सिद्ध होते हैं ॥१२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

राजा प्रजावर्गों का कर्त्तव्य

पदार्थान्वयभाषाः - राष्ट्र में राजा और प्रजावर्ग की सम्मिलित शक्तियाँ सब प्रजाओं की रक्षा करती हैं। वह राजा, हिंसक शत्रु के सैन्य के शिरोनायक का नाश करता है, महान् (अहिम्) = सन्मुख आये पर प्रहार करता और परसैन्यों को भगा देता है। (सप्त सिन्धून) = नदीवेग से आगे बढ़नेवाले शत्रुसैन्यों को पराजित करता है। आकाश और भूमि के समान आश्रय रूप और रक्षकरूप राजा और उसकी राज्यशासनव्यवस्था हमारी रक्षा करें।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - राजा और प्रजा मिलकर राष्ट्र को शत्रु रहित व शक्तिशाली बनायें।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा राजा वा (मह्ना) स्वकीयमहत्त्वेन (महतः-अर्णवस्य-अर्बुदस्य) ज्ञानार्णवस्य “अर्णं विज्ञानम्” [यजु० १२।४९ दयानन्दः] वाग्विषयस्य “वाग्वा अर्बुदम्” [तै० ३।८।१६।३] (मूर्धानं वि-अभिनत्) सर्वोपरि विराजमानं वेदम् “मूर्धा सर्वोपरि विराजमानः” [यजु० ३।१२ दयानन्दः] विशिष्टतया-उद्धारयति (अहिम्-अहन्) मेघमिव ज्ञानावरकम् अज्ञानान्धकारम् “अहि मेघनाम” [निघ० १।१०] हन्ति नष्टं करोति (सप्त सिन्धून्-अरिणात्) सप्तस्यन्दमानान् छन्दोरूपान् मन्त्रान् प्रवाहत “सिन्धुश्छन्दः” [श० ८।५।२।४] “रिणाति गतिकर्मा” [निघ० २।१४] (देवैः-द्यावापृथिवी नः-प्रावतम्) विद्वद्भिः सह सभाप्रजेऽस्मान् रक्षतम् ॥१२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra with his might breaks the top of the great ocean of waters in space and, breaking the dark cloud, releases the seven seas and sets the rivers aflow. May the heaven and earth protect us by the divinities.$(The metaphor has been explained also as revelation of the Vedas in seven metres at the time of the creation of humanity. The revelation breaks through the darkness of ignorance and releases the light of knowledge to radiate in seven chhandas of the Vedas.)