पदार्थान्वयभाषाः - [१] (देवास:) = देव वृत्ति के पुरुष (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्क रूप द्युलोक को तथा शरीर रूप पृथिवीलोक को (जनयन्) = विकसित करते हैं। शरीर को दृढ़ बनाते हैं तथा मस्तिष्क को ज्योतिर्मय । [२] इस द्यावापृथिवी का (अभि) = लक्ष्य करके, अर्थात् दृढ़ शरीर व ज्योतिर्मय मस्तिष्क को बनाने का विचार करते हुए ही ये (व्रता) = अपने जीवन में व्रतों को (आ पप्रुः) = आपूरित करते हैं, इनका जीवन व्रतमय होता है। जीवन को व्रतमय रखने के लिये ही ये (आपः ओषधीः) = जलों व ओषधियों को तथा (यज्ञिया वनिनानि) = यज्ञ के योग्य पवित्र वनस्पतियों को ही अपने में आपूरित करते हैं। यज्ञ के अन्दर कभी अपवित्र पदार्थों को नहीं डाला जाता। इसी प्रकार ये भोजन को भी एक यज्ञ का ही रूप दे देते हैं और सात्त्विक ही पदार्थों का सेवन करते हैं। पीने के लिये शुद्ध जल और खाने के लिये वानस्पतिक पदार्थ । इन पदार्थों को ही अपने आपूरित करते हुए ये सात्त्विक जीवनवाले बनते हैं । [३] इस सात्त्विकता को स्थिर रखने के लिये ही (अन्तरिक्षम्) = [अन्तराक्षि] सदा मध्यमार्ग को ये अपनाते हैं। इस मध्यमार्ग पर आक्रमण करने से ये (स्वः) = प्रकाश व सुख को अपने में आ पूरित करनेवाले होते हैं । [४] (ऊतये) = सब प्रकार से अपने रक्षण के लिये ये देव (वशम्) = [power, controe, mestsship, subjection] जितेन्द्रियता को, इन्द्रिय-संयम को अपने में आपूरित करते हैं। इस वश के अनुपात में ही वस्तुतः 'द्यावापृथिवी' का विकास हुआ करता है । [५] इस प्रकार जीवन को बनाते हुए (देवासः) = ये देव (तन्वि) = स्व शरीर में (निमामृजुः) = नितरां शोधन करते हैं। जीवन की शुद्धता ही देवत्व है, जीवन की मलिनता ही आसुरी संपद है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- देव शरीर को दृढ़ व मस्तिष्क को दीप्त बनाते हैं। ये व्रती व वानस्पतिक पदार्थों का सेवन करनेवाले होते हैं। मध्य-मार्ग पर चलते हुए प्रकाशमय जीवनवाले होते हैं। संयमी व शुद्ध जीवनवाले बनते हैं।