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द्यावा॑पृथि॒वी ज॑नयन्न॒भि व्र॒ताप॒ ओष॑धीर्व॒निना॑नि य॒ज्ञिया॑ । अ॒न्तरि॑क्षं॒ स्व१॒॑रा प॑प्रुरू॒तये॒ वशं॑ दे॒वास॑स्त॒न्वी॒३॒॑ नि मा॑मृजुः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dyāvāpṛthivī janayann abhi vratāpa oṣadhīr vanināni yajñiyā | antarikṣaṁ svar ā paprur ūtaye vaśaṁ devāsas tanvī ni māmṛjuḥ ||

पद पाठ

द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । ज॒न॒य॒न् । अ॒भि । व्र॒ता । आपः॑ । ओष॑धीः । व॒निना॑नि । य॒ज्ञिया॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् । स्वः॑ । आ । प॒प्रुः॒ । ऊ॒तये॑ । वश॑म् । दे॒वासः॑ । त॒न्वि॑ । नि । म॒मृ॒जुः॒ ॥ १०.६६.९

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:66» मन्त्र:9 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:13» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:9


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (देवासः) विद्वान् (ओषधीः-यज्ञिया-वनिनानि) गोधूम-गेहूँ आदि ओषधियों तथा वन में होनेवाले श्रेष्ठ फलों को (जनयन्) उत्पन्न करते हुए-उसके हेतु (द्यावापृथिवी स्वः-अन्तरिक्षम्-आपप्रुः) यज्ञ से द्युलोक, पृथिवीलोक और आकाश को सुख जिससे हो, ऐसे पूर्ण करें (ऊतये) रक्षा के लिए (तन्वि वशं निममृजुः) अपने शरीर में कमनीय सुख और निर्दोष निर्मल विचारों को करें-सम्पादित करें ॥९॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों को चाहिए कृषि और उद्यानों में गोधूम आदि अन्नों और विविध फलों को पुष्ट मधुररूप से उत्पन्न करें तथा उनके द्वारा यज्ञों को रचाकर स्वास्थ्य प्राप्त करें और जनता के स्वास्थ्य को सम्पन्न करें, निर्मल विशुद्ध विचारों का प्रचार करें ॥९॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

देवताओं का संयमी जीवन

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (देवास:) = देव वृत्ति के पुरुष (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्क रूप द्युलोक को तथा शरीर रूप पृथिवीलोक को (जनयन्) = विकसित करते हैं। शरीर को दृढ़ बनाते हैं तथा मस्तिष्क को ज्योतिर्मय । [२] इस द्यावापृथिवी का (अभि) = लक्ष्य करके, अर्थात् दृढ़ शरीर व ज्योतिर्मय मस्तिष्क को बनाने का विचार करते हुए ही ये (व्रता) = अपने जीवन में व्रतों को (आ पप्रुः) = आपूरित करते हैं, इनका जीवन व्रतमय होता है। जीवन को व्रतमय रखने के लिये ही ये (आपः ओषधीः) = जलों व ओषधियों को तथा (यज्ञिया वनिनानि) = यज्ञ के योग्य पवित्र वनस्पतियों को ही अपने में आपूरित करते हैं। यज्ञ के अन्दर कभी अपवित्र पदार्थों को नहीं डाला जाता। इसी प्रकार ये भोजन को भी एक यज्ञ का ही रूप दे देते हैं और सात्त्विक ही पदार्थों का सेवन करते हैं। पीने के लिये शुद्ध जल और खाने के लिये वानस्पतिक पदार्थ । इन पदार्थों को ही अपने आपूरित करते हुए ये सात्त्विक जीवनवाले बनते हैं । [३] इस सात्त्विकता को स्थिर रखने के लिये ही (अन्तरिक्षम्) = [अन्तराक्षि] सदा मध्यमार्ग को ये अपनाते हैं। इस मध्यमार्ग पर आक्रमण करने से ये (स्वः) = प्रकाश व सुख को अपने में आ पूरित करनेवाले होते हैं । [४] (ऊतये) = सब प्रकार से अपने रक्षण के लिये ये देव (वशम्) = [power, controe, mestsship, subjection] जितेन्द्रियता को, इन्द्रिय-संयम को अपने में आपूरित करते हैं। इस वश के अनुपात में ही वस्तुतः 'द्यावापृथिवी' का विकास हुआ करता है । [५] इस प्रकार जीवन को बनाते हुए (देवासः) = ये देव (तन्वि) = स्व शरीर में (निमामृजुः) = नितरां शोधन करते हैं। जीवन की शुद्धता ही देवत्व है, जीवन की मलिनता ही आसुरी संपद है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- देव शरीर को दृढ़ व मस्तिष्क को दीप्त बनाते हैं। ये व्रती व वानस्पतिक पदार्थों का सेवन करनेवाले होते हैं। मध्य-मार्ग पर चलते हुए प्रकाशमय जीवनवाले होते हैं। संयमी व शुद्ध जीवनवाले बनते हैं।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (देवासः) विद्वांसः (ओषधीः-यज्ञिया-वनिनानि) गोधूमादीन्योषधी-स्तथा वने भवानि वृक्षगणे भवानि श्रेष्ठानि फलानि (जनयन्) उत्पादयन् तद्धेतोः (द्यावापृथिवी-स्वः-अन्तरिक्षम्-आपप्रुः) यज्ञेन द्युलोकमाकाशं पृथिवीं च सुखं यथा स्यात्तथा पूरयन्तु (ऊतये) रक्षायै (तन्वि वशं निममृजुः) स्वशरीरे कमनीयं सुखं विचारं निर्मलं निर्दोषं कुर्वन्तु ॥९॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Vishvedevas, divinities of nature and humanity, dedicated to their duties and discipline, creating and promoting herbs and trees and forests for nature’s sacred purpose of protection and promotion of life, fill the regions of earth, sky, the sun and the highest heaven with replenitude and add beauty to their own body and the environment to their heart’s desire.