पदार्थान्वयभाषाः - [१] (दैव्या होतारा) = अग्नि और आदित्य दैव्य होता हैं, ये हमें उस देव के प्राप्त करानेवाले हैं [हु-दाने] । (प्रथमा) = हमारी शक्तियों का विस्तार करनेवाले हैं। (पुरोहिता) = ये हमारे सामने आदर्श के रूप से रखे गये हैं। आदित्य की तरह हमने सब स्थानों से अच्छाई को ग्रहण करना है और अग्नि की तरह निरन्तर आगे बढ़ते चलना है [अग्निः = अग्रणीः] । [२] मैं आदित्य व अग्नि का शिष्य बनकर (साधुया) = उत्तमता से (ऋतस्य पन्थां अनुएभि) = ऋत के मार्ग का अनुसरण करता हूँ ऋत, अर्थात् यज्ञ को अपनाता हूँ और ऋत, अर्थात् प्रत्येक कार्य को ठीक समय व ठीक स्थान पर करनेवाला बनता हूँ। [३] हम (क्षेत्रस्य पतिम्) = इस शरीर रूप क्षेत्र के स्वामी (प्रतिवेशम्) = समीप वर्तमान [पड़ोसी] उस प्रभु को (ईमहे) = प्रार्थित करते हैं और साथ ही (विश्वान् देवान्) = सब ज्ञानी पुरुषों के भी जो (अमृतान्) = विषयों के पीछे मरनेवाले नहीं तथा (अप्रयुच्छतः) = धर्म सत्य व स्वाध्यायादि में प्रमाद करनेवाले नहीं उनका आराधन करते हैं। इन देवों के सम्पर्क में आकर हम भी देववृत्ति का बनने का प्रयत्न करते हैं। इनसे हम दैवी सम्पत्ति की याचना करते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम आदित्य व अग्नि को अपना आदर्श बनाते हैं। प्रभु की प्रार्थना करते हैं। देवों के सम्पर्क से दैवी सम्पत्ति को प्राप्त करते हैं ।