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स॒मु॒द्रः सिन्धू॒ रजो॑ अ॒न्तरि॑क्षम॒ज एक॑पात्तनयि॒त्नुर॑र्ण॒वः । अहि॑र्बु॒ध्न्य॑: शृणव॒द्वचां॑सि मे॒ विश्वे॑ दे॒वास॑ उ॒त सू॒रयो॒ मम॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samudraḥ sindhū rajo antarikṣam aja ekapāt tanayitnur arṇavaḥ | ahir budhnyaḥ śṛṇavad vacāṁsi me viśve devāsa uta sūrayo mama ||

पद पाठ

स॒मु॒द्रः । सिन्धुः॑ । रजः॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒जः । एक॑ऽपात् । त॒न॒यि॒त्नुः । अ॒र्ण॒वः । अहिः॑ । बु॒ध्न्यः॑ । शृ॒ण॒व॒त् । वचां॑सि । मे॒ । विश्वे॑ । दे॒वासः॑ । उ॒त । सू॒रयः॑ । मम॑ ॥ १०.६६.११

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:66» मन्त्र:11 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:14» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:11


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (समुद्रः) सागर (सिन्धुः) नदी (रजः) पृथिवीलोक (अन्तरिक्षम्) आकाश (एकपात्-अजः) एक स्वाधार गतिवाला अन्यों के लिए गतिप्रद सूर्य (तनयित्नुः) विद्युत् (अर्णवः) जलाशय (बुध्न्यः-अहिः) अन्तरिक्षस्थ मेघ, ये सब अनुकूल हों (विश्वेदेवासः-उत सूरयः) सब विद्वान् और मेधावी जन (मे वचांसि शृणवत्) मेरे वचनों को सुनें ॥११॥
भावार्थभाषाः - आकाश, सूर्य, पृथिवी समुद्र, नदी, जलाशय, विद्युत् तथा मेघ ये सब अनुकूल होवें तथा विद्वान् भी निवेदनों को सुननेवाले-स्वीकार करनेवाले हों, जिससे जनमात्र सुखी हो सके ॥११॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

देव-सूरि

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (समुद्रः) = समुद्र मे (वचांसि शृणवत्) = मेरे वचनों को सुनें । इस समुद्र की तरह मैं भी ज्ञान का समुद्र बनूँ। [२] (सिन्धुः) = निरन्तर जल-प्रवाहवाली नदी [स्यन्दते] मेरे वचनों को सुने। इस नदी के प्रवाह की तरह ही मेरा कर्म-प्रवाह सतत चलता रहे । [२] (रजः अन्तरिक्षम्) = यह चन्द्र की ज्योत्स्ना से रञ्जन करनेवाला अन्तरिक्ष मेरे वचनों को सुने। एक ओर सन्तापवाले सूर्य से युक्त द्युलोक है, दूसरी ओर दाहक अग्निवाला पृथिवीलोक । इनके मध्य में शीतल ज्योत्स्ना से युक्त चन्द्रवाला अन्तरिक्ष लोक है। मैं भी सदा मध्य में चलनेवाला बनूँ, अति को छोड़कर यह मध्य-मार्ग को अपनाना मुझे भी चन्द्र की शीतल ज्योत्स्ना को प्राप्त करायेगा और यही मेरे जीवन को आनन्दित करेगा। [३] (अज एक पात्) = वह गति के द्वारा सब मलों का क्षेपण करनेवाला मुख्य [एक] गति देनेवाला [पद्] प्रभु मेरे वचन को सुने। मैं भी गति के द्वारा मलों को अपने से दूर फेंकूँ। गतिशीलता मेरे जीवन को निर्मल बनाये । (अर्णवः) = जल से युक्त (तनयित्नुः) = गर्जनेवाला मेघ मेरे वचन को सुने। मैं भी ज्ञानजल से उसी प्रकार औरों को शान्ति देनेवाला बनूँ जैसे कि मेघ सन्ताप को हरता है । (अहिर्बुध्न्यः) = अहिंसित मूलवाला अथवा अहीन मूलवाला देव मेरी प्रार्थना को सुने। मैं भी अहीन मूलवाला बनूँ । मेरे जीवन का आधार 'ज्ञान, कर्म व उपासना' तीनों पर हो । किसी एक की भी कमी मुझे हीन मूलवाला बना देगी। मूल में कमी होने पर उन्नति का भवन भी सुस्थिर न होगा। [४] इस प्रकार का जीवन बना सकने के लिये (विश्वेदेवासः) = सब देववृत्ति के पुरुष (उत) = तथा (सूरयः) = ज्ञानी लोग (मम) = मेरे हों। इनका सम्पर्क मुझे भी देव व सूरि बनाये ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- समुद्र आदि से शिक्षा को ग्रहण करते हुए हम देववृत्ति के ज्ञानी पुरुष बनने का प्रयत्न करें।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (समुद्रः) सागरः (सिन्धुः) नदी (रजः) पृथिवीलोकः (अन्तरिक्षम्) आकाशः (एकपात्-अजः) एकः स्वाधारगतिकोऽन्येभ्यो गतिप्रदः सूर्यः “अज एकपादुदगात् पुरस्तात्.....तं सूर्यं देवमजमेकपादम्” [तै० ३।१।२।८] (तनयित्नुः) स्तनयित्नुः-विद्युत् (अर्णवः) उदकवान् जलाशयः “अर्णः-उदकनाम” [निघ० १।१२] (बुध्न्यः-अहिः) आन्तरिक्ष्यो मेघः, एते अनुकूला भवन्तु (विश्वेदेवासः-उत सूरयः) सर्वे विद्वांसोऽपि मेधाविनश्च (मे वचांसि शृणवत्) मम प्रार्थनावचनानि शृण्वन्तु ॥११॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - May the ocean, the sea and rivers, the middle regions of vapour and air, the one absolute eternal sustainer of the universe, the thunder, the spatial ocean, the region of dark clouds, and all divinities and eminent sages and scholars of the world, listen to my invocation and prayer and respond.