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स्व॑र्णरम॒न्तरि॑क्षाणि रोच॒ना द्यावा॒भूमी॑ पृथि॒वीं स्क॑म्भु॒रोज॑सा । पृ॒क्षा इ॑व म॒हय॑न्तः सुरा॒तयो॑ दे॒वाः स्त॑वन्ते॒ मनु॑षाय सू॒रय॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svarṇaram antarikṣāṇi rocanā dyāvābhūmī pṛthivīṁ skambhur ojasā | pṛkṣā iva mahayantaḥ surātayo devāḥ stavante manuṣāya sūrayaḥ ||

पद पाठ

स्वः॑ऽनरम् । अ॒न्तरि॑क्षाणि । रो॒च॒ना । द्यावा॒भूमी॒ इति॑ । पृ॒थि॒वीम् । स्क॒म्भुः॒ । ओज॑सा । पृ॒क्षाःऽइ॑व । म॒हय॑न्तः । सु॒ऽरा॒तयः॑ । दे॒वाः । स्त॒व॒न्ते॒ । मनु॑षाय । सू॒रयः॑ ॥ १०.६५.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:65» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:9» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वर्णरम्) तेजस्वी सूर्य को (अन्तरिक्षाणि रोचना) अन्तरिक्ष में होनेवाले नक्षत्रों को (द्यावाभूमी) द्युलोक पृथिवीलोक को (पृथिवीम्) फैली हुई सृष्टि को (ओजसा) ज्ञान बल से (स्कम्भुः) अपने अन्दर धारण करते हैं-सम्भालते हैं (पृक्षाः इव) सम्पृक्त सुबन्धु के समान (महयन्तः) महत्त्व को चाहते हुए (सुरातयः) शोभन ज्ञानदाता (सूरयः-देवाः) स्तोता विद्वान् (मनुषाय) मनुष्य के लिए (स्तवन्ते) वर्णन करते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - सृष्टि के महत्त्ववाले पदार्थों का स्वयं क्रियात्मक ज्ञान करके जो दूसरों को भी ज्ञान देते हैं, वे महानुभाव धन्य हैं ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

देवों के लक्षण

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (देवा:) = देव (ओजसा) = ओज के हेतु से (स्वर्णरम्) = [स्व-स्व कर्मणि नेतारं सा० ] प्रकाश के द्वारा सबको अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त करनेवाले आदित्य को, (अन्तरिक्षाणि) = द्युलोक व पृथिवीलोक के मध्य में होनेवाले (रोचना) = दीप्त नक्षत्रों को (द्यावाभूमी) = द्युलोक और पृथिवीलोक को तथा (पृथिवीम्) = अन्तरिक्षलोक को (स्कम्भुः) = धारण करते हैं। आदित्य को धारण करना 'ब्रह्मज्ञान के सूर्य' को धारण करना है। नक्षत्रों के धारण करने का भाव 'विज्ञान के नक्षत्रों' को धारण करना है । द्युलोक 'मस्तिष्क' है, भूमि यह 'शरीर' है और पृथिवी शब्द अन्तरिक्षवाची होता हुआ हृदयान्तरिक्ष की सूचना देता है। देव लोग इन तीनों का धारण करते हैं, इन्हें क्रमश: 'दीप्त, दृढ़ व पवित्र' बनाते हैं । [२] (पृक्षा:) = [पृच्= to give gramt bountifully ] (इव) = उदार पुरुषों के समान (महयन्तः) = [to behonowred] आदर को प्राप्त होते हुए (सुरातयः) = उत्तम दानोंवाले (देवा:) = देव (स्तवन्ते) = सब से स्तुति किये जाते हैं और (मनुषाय) = विचारशील पुरुष के लिये (सूरयः) = उत्तम ज्ञान को प्रेरित करनेवाले होते हैं। देवों की प्रथम विशेषता यह है कि वे उदार होते हैं, उदार होने के कारण ही वे आदृत होते हैं। ये देव जहाँ उत्तम धनों को देनेवाले हैं, वहाँ विचारशील पुरुष के लिये सदा ज्ञान की प्रेरणा को भी प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - देव ज्ञान-विज्ञान को धारण करते हुए मस्तिष्क, शरीर व हृदय को उत्तम बनाते हैं। ये उदारता के कारण आदृत होते हैं और धनों व ज्ञान की प्रेरणा को देनेवाले होते हैं।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वर्णरम्) तेजस्विनामकं सूर्यम् (अन्तरिक्षाणि रोचना) अन्तरिक्षे भवानि रोचमानानि नक्षत्राणि (द्यावाभूमी) द्यावापृथिव्यौ (पृथिवीम्) प्रथितां सृष्टिं (ओजसा) ज्ञानबलेन (स्कम्भुः) स्वाभ्यन्तरे धारयन्ति (पृक्षाः-इव) सम्पृक्ताः सुबन्धव इव (महयन्तः) महत्त्वमिच्छन्तः (सुरातयः) शोभनज्ञानदातारः (सूरयः-देवाः) स्तोतारो विद्वांसः “सूरिः स्तोतृनाम” [निघ० ३।१६] (मनुषाय) मनुष्याय (स्तवन्ते) वर्णयन्ति ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - These Vishvedevas, cosmic powers, by their glorious lustre and power, hold and sustain the bright sun, the shining stars, heaven and earth and the expansive universe. Brilliant celebrants adore and exalt them as divine powers, munificent givers and generous friends for humanity.