पदार्थान्वयभाषाः - [१] (देवा:) = देव (ओजसा) = ओज के हेतु से (स्वर्णरम्) = [स्व-स्व कर्मणि नेतारं सा० ] प्रकाश के द्वारा सबको अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त करनेवाले आदित्य को, (अन्तरिक्षाणि) = द्युलोक व पृथिवीलोक के मध्य में होनेवाले (रोचना) = दीप्त नक्षत्रों को (द्यावाभूमी) = द्युलोक और पृथिवीलोक को तथा (पृथिवीम्) = अन्तरिक्षलोक को (स्कम्भुः) = धारण करते हैं। आदित्य को धारण करना 'ब्रह्मज्ञान के सूर्य' को धारण करना है। नक्षत्रों के धारण करने का भाव 'विज्ञान के नक्षत्रों' को धारण करना है । द्युलोक 'मस्तिष्क' है, भूमि यह 'शरीर' है और पृथिवी शब्द अन्तरिक्षवाची होता हुआ हृदयान्तरिक्ष की सूचना देता है। देव लोग इन तीनों का धारण करते हैं, इन्हें क्रमश: 'दीप्त, दृढ़ व पवित्र' बनाते हैं । [२] (पृक्षा:) = [पृच्= to give gramt bountifully ] (इव) = उदार पुरुषों के समान (महयन्तः) = [to behonowred] आदर को प्राप्त होते हुए (सुरातयः) = उत्तम दानोंवाले (देवा:) = देव (स्तवन्ते) = सब से स्तुति किये जाते हैं और (मनुषाय) = विचारशील पुरुष के लिये (सूरयः) = उत्तम ज्ञान को प्रेरित करनेवाले होते हैं। देवों की प्रथम विशेषता यह है कि वे उदार होते हैं, उदार होने के कारण ही वे आदृत होते हैं। ये देव जहाँ उत्तम धनों को देनेवाले हैं, वहाँ विचारशील पुरुष के लिये सदा ज्ञान की प्रेरणा को भी प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - देव ज्ञान-विज्ञान को धारण करते हुए मस्तिष्क, शरीर व हृदय को उत्तम बनाते हैं। ये उदारता के कारण आदृत होते हैं और धनों व ज्ञान की प्रेरणा को देनेवाले होते हैं।