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ते हि द्यावा॑पृथि॒वी मा॒तरा॑ म॒ही दे॒वी दे॒वाञ्जन्म॑ना य॒ज्ञिये॑ इ॒तः । उ॒भे बि॑भृत उ॒भयं॒ भरी॑मभिः पु॒रू रेतां॑सि पि॒तृभि॑श्च सिञ्चतः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

te hi dyāvāpṛthivī mātarā mahī devī devāñ janmanā yajñiye itaḥ | ubhe bibhṛta ubhayam bharīmabhiḥ purū retāṁsi pitṛbhiś ca siñcataḥ ||

पद पाठ

ते । हि । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । मा॒तरा॑ । म॒ही । दे॒वी । दे॒वान् । जन्म॑ना । य॒ज्ञिये॒ इति॑ । इ॒तः । उ॒भे इति॑ । बि॒भृ॒तः॒ । उ॒भय॑म् । भरी॑मऽभिः । पु॒रु । रेतां॑सि । पि॒तृऽभिः॑ । च॒ । सि॒ञ्च॒तः॒ ॥ १०.६४.१४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:64» मन्त्र:14 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:8» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:14


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ते द्यावापृथिवी) वे द्युलोक और पृथिवीलोक (मही देवी मातरा हि) महान् दिव्यगुणवाले सबके निर्माण करनेवाले हैं (यज्ञिये जन्मना देवान्-इत्) वे यजनीय-सङ्गमनीय परस्पर सङ्गम की अपेक्षा करनेवाले जन्म देने-उत्पादन करने के कारण सब दिव्य पदार्थों को प्राप्त होते हैं (उभे उभयं बिभ्रतः) वे दोनों स्थावर जङ्गम को भरणपदार्थों से जल अन्न आदियों से धारण करते हैं (पितृभिः-पुरुरेतांसि सिञ्चतः) पितृधर्मों रजवीर्यरूप धर्मों के द्वारा बहुविध रजवीर्यों को सींचते हैं ॥१४॥
भावार्थभाषाः - द्युलोक और पृथिवीलोक स्त्री-पुरुष के समान एक दूसरे को अपेक्षित करते हैं। वे दोनों रजवीर्य शक्तियों के द्वारा प्राणिवनस्पतियों को उत्पन्न करते हैं तथा उन्हें धारण करते हैं और पोषण करते हैं ॥१४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

द्यावापृथिवी

पदार्थान्वयभाषाः - [१] शरीर में मस्तिष्क 'द्युलोक' है तथा यह स्थूल शरीर 'पृथिवी' है। (ते) = वे (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्क व शरीर (हि) = निश्चय से (मातरा) = हमारे जीवन का निर्माण करनेवाले हैं। मस्तिष्क 'ज्ञान' के द्वारा तथा शरीर 'शक्ति' के द्वारा हमारी जीवनयात्रा को पूर्ण करनेवाले हैं । अतएव (मही) = ये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। मस्तिष्क का महत्त्व है, तो 'शरीर का महत्त्व उससे कम हो' ऐसी बात नहीं है । ये दोनों (देवी) = हमारे जीवनों में दिव्यगुणों को उत्पन्न करनेवाले हैं । [२] ये (यज्ञिये) = याज्ञिक प्रवृत्ति के लिये हेतुभूत द्यावापृथिवी (देवान्) = देववृत्ति के पुरुषों को (जन्मना) = विकास के हेतु से इतः प्राप्त होते हैं। ज्ञान व शक्ति मिलकर हमारे में यज्ञ के भाव को जन्म देते हैं। इन यज्ञों से हमारा विकास होता है । [३] (उभे) = ये दोनों द्यावापृथिवी (भरीमभिः) = भरण-पोषणों के द्वारा (उभयम्) = हमारे जीवनों में अभ्युदय व निः श्रेयस दोनों का (बिभृतः) = पोषण करते हैं । (च) = और ये द्यावापृथिवी (पितृभिः) = माता, पिता व आचार्य रूप पिताओं के द्वारा (रेतांसि) = शक्तियों का (पुरु) = खूब ही (सिञ्चतः) = अपने में सेचन करते हैं। माता चरित्र निर्माण के द्वारा, पिता शिष्टाचार के द्वारा, आचार्य ज्ञान के द्वारा हमारे जीवनों में विविध बलों का संचार करते हैं । चरित्र का बल, शिष्टाचार का बल व ज्ञान का बल हमें क्रमशः पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक का विजय करने में समर्थ करते हैं। |
भावार्थभाषाः - भावार्थ - मस्तिष्क व शरीर दोनों मिलकर जीवन को सुन्दर बनाते हैं। दोनों शरीर में विविध शक्तियों का स्थापन करते हैं।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ते द्यावापृथिवी मही देवी मातरा हि) ते द्यावापृथिव्यौ महत्यौ दिव्यगुणवत्यौ सर्वस्य जगतो निर्मात्र्यौ हि स्तः (यज्ञिये जन्मना देवान्-इत्) ते यजनीये सङ्गमनीये परस्परं सङ्गमप्राप्ते जन्मदानेन-उत्पादनेन सर्वान् दिव्यपदार्थान् प्राप्नुतः (उभे-उभयं बिभ्रतः) ते उभे-उभयं स्थावरजङ्गमं भरणपदार्थैर्जलान्नादिभिश्च धारयतः पोषयतः (पितृभिः-पुरुरेतांसि सिञ्चतः) पितृधर्मै रजवीर्यात्मकैर्धर्मै-र्बहुविधानि रजवीर्याणि सिञ्चतः ॥१४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Heaven and earth, both of them great, divine, venerable mothers of life from their very birth in existence, are united with generative vitalities of nature here itself. Both sustain the moving and unmoving forms of life with their nourishing powers and both pour out abundant fertility and generative vitalities replete with the seeds of life essence in natural form.