पदार्थान्वयभाषाः - [१] शरीर में मस्तिष्क 'द्युलोक' है तथा यह स्थूल शरीर 'पृथिवी' है। (ते) = वे (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्क व शरीर (हि) = निश्चय से (मातरा) = हमारे जीवन का निर्माण करनेवाले हैं। मस्तिष्क 'ज्ञान' के द्वारा तथा शरीर 'शक्ति' के द्वारा हमारी जीवनयात्रा को पूर्ण करनेवाले हैं । अतएव (मही) = ये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। मस्तिष्क का महत्त्व है, तो 'शरीर का महत्त्व उससे कम हो' ऐसी बात नहीं है । ये दोनों (देवी) = हमारे जीवनों में दिव्यगुणों को उत्पन्न करनेवाले हैं । [२] ये (यज्ञिये) = याज्ञिक प्रवृत्ति के लिये हेतुभूत द्यावापृथिवी (देवान्) = देववृत्ति के पुरुषों को (जन्मना) = विकास के हेतु से इतः प्राप्त होते हैं। ज्ञान व शक्ति मिलकर हमारे में यज्ञ के भाव को जन्म देते हैं। इन यज्ञों से हमारा विकास होता है । [३] (उभे) = ये दोनों द्यावापृथिवी (भरीमभिः) = भरण-पोषणों के द्वारा (उभयम्) = हमारे जीवनों में अभ्युदय व निः श्रेयस दोनों का (बिभृतः) = पोषण करते हैं । (च) = और ये द्यावापृथिवी (पितृभिः) = माता, पिता व आचार्य रूप पिताओं के द्वारा (रेतांसि) = शक्तियों का (पुरु) = खूब ही (सिञ्चतः) = अपने में सेचन करते हैं। माता चरित्र निर्माण के द्वारा, पिता शिष्टाचार के द्वारा, आचार्य ज्ञान के द्वारा हमारे जीवनों में विविध बलों का संचार करते हैं । चरित्र का बल, शिष्टाचार का बल व ज्ञान का बल हमें क्रमशः पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक का विजय करने में समर्थ करते हैं। |
भावार्थभाषाः - भावार्थ - मस्तिष्क व शरीर दोनों मिलकर जीवन को सुन्दर बनाते हैं। दोनों शरीर में विविध शक्तियों का स्थापन करते हैं।