वांछित मन्त्र चुनें

कु॒विद॒ङ्ग प्रति॒ यथा॑ चिद॒स्य न॑: सजा॒त्य॑स्य मरुतो॒ बुबो॑धथ । नाभा॒ यत्र॑ प्रथ॒मं सं॒नसा॑महे॒ तत्र॑ जामि॒त्वमदि॑तिर्दधातु नः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kuvid aṅga prati yathā cid asya naḥ sajātyasya maruto bubodhatha | nābhā yatra prathamaṁ saṁnasāmahe tatra jāmitvam aditir dadhātu naḥ ||

पद पाठ

कु॒वित् । अ॒ङ्ग । प्रति॑ । यथा॑ । चि॒त् । अ॒स्य । नः॒ । स॒ऽजा॒त्य॑स्य । म॒रु॒तः॒ । बुबो॑धथ । नाभा॑ । यत्र॑ । प्र॒थ॒मम् । स॒म्ऽनसा॑महे । तत्र॑ । जा॒मि॒ऽत्वम् । अदि॑तिः । द॒धा॒तु॒ । नः॒ ॥ १०.६४.१३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:64» मन्त्र:13 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:8» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:13


0 बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अङ्ग मरुत) हे जीवन्मुक्तो ! (अस्य सजात्यस्य नः) इस परमात्मा का हमारे साथ बहुत प्रकार से सम्बन्धभाव हो-मोक्ष में (यथा चित्) जिस साधन से, वह (प्रति बुबोधथ) हमें बतलाओ (यत्र नाभा) जिस बन्धन में या सम्बन्ध के होने पर (प्रथमं संनसामहे) प्रमुख सुख को प्राप्त करें (तत्र-अदितिः) उस मोक्ष में अखण्डित एकरस अविनश्वर परमात्मा (नः-जामित्वं दधातु) हमारे लिए सुखभोग सम्बन्ध को धारण कराये ॥१३॥
भावार्थभाषाः - जीवन्मुक्त विद्वानों के पास जाकर वह ज्ञानग्रहण करना चाहिए, जिससे परमात्मा के साथ स्थायी सम्बन्ध बन जावे। वह अपना सम्बन्धी बनाकर मोक्ष का प्रमुख सुख दे सके और सदा विद्वानों का सहयोग मिलता रहे ॥१३॥
0 बार पढ़ा गया

हरिशरण सिद्धान्तालंकार

प्राणसाधना व यज्ञियवृत्ति

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (मरुतः) = प्राणो ! आप (अंग) = शीघ्र ही (कुवित्) = खूब ही (यथा) = जैसे-जैसे (चित्) = निश्चय से (नः) = हमारे (अस्य) = इस (सजात्यस्य) = बन्धुत्व का (प्रतिबुबोधथ) = प्रतिदिन बोध करते हो, हमारे बन्धुत्व को अपने साथ समझते हो, तो यह बन्धुत्व ऐसा होता है कि (यत्र) = जिसमें (प्रथमम्) = सबसे पहले तो हम (नाभा) = [ अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः ] यज्ञ में (संनसामहे) = संगत होते हैं। जितनी-जितनी हम प्राणसाधना करते हैं उतनी उतनी हमारी वृत्ति यज्ञ की ओर झुकती है। प्राणों के साथ हमारा सजात्य व बन्धुत्व यही है कि हम प्राणायाम के द्वारा प्राणसाधना में प्रवृत्त होते हैं और प्राणों के बल को बढ़ाते हैं । यह प्रवृद्ध प्राणशक्तिवाला पुरुष यज्ञों में प्रवृत्त होता है । [२] (तत्र) = वहाँ, उन यज्ञों में (अदिति:) = [अ+दिति] स्वास्थ्य का अखण्डन (नः) = हमारे (जामित्वम्) = बन्धुत्व को (दधातु) = धारण करे। हम स्वस्थ बने रहें और यज्ञात्मक कर्मों के करने में समर्थ रहें । वस्तुतः प्राणसाधना से जहाँ हमारी वृत्ति यज्ञिय बनती है, वहाँ हमारा स्वास्थ्य भी ठीक रहता है और हम उन यज्ञों के करने के योग्य बने रहते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम प्राणों के साथ अपना बन्धुत्व स्थापित करें, इस बन्धुत्व का परिणाम वह होगा कि हमारी वृत्ति यज्ञिय बनेगी और हम दीर्घायुष्य को प्राप्त करेंगे।
0 बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अङ्ग मरुत) हे जीवन्मुक्ताः ! (अस्य सजात्यस्य नः) अस्य परमात्मनोऽस्माकं बहुः समान-सम्बन्धभावः प्रथमार्थे षष्ठी व्यत्ययेन स्यात्-मोक्षे (यथा चित्) येनापि साधनेन (प्रति बुबोधथ) प्रति ज्ञापयथ (यत्र नाभा) यस्मिन् नहने बन्धने सम्बन्धे योगे (प्रथमं संनसामहे) प्रमुखं प्रतमं सुखं प्राप्नुमः “नसतिराप्नोतिकर्मा” [निरु० ७।१७] “नसते गतिकर्मा” [निघ० २।१४] (तत्र-अदितिः) तस्मिनखण्डित एकरसोऽविनश्वरः परमात्मा (नः-जामित्वं दधातु) अस्मभ्यं सुखभोगसम्बन्धं धारयतु ॥१३॥
0 बार पढ़ा गया

डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Dear Maruts, wise sages, you know and we pray enlighten us of our divine affinity and essential relationship with this Lord Supreme whatever way it is possible. May Aditi, mother Infinity, lead us to find our essential nature and identity and guide us to reach there where we may regain our first and original centre of being.