प्राणसाधना व यज्ञियवृत्ति
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (मरुतः) = प्राणो ! आप (अंग) = शीघ्र ही (कुवित्) = खूब ही (यथा) = जैसे-जैसे (चित्) = निश्चय से (नः) = हमारे (अस्य) = इस (सजात्यस्य) = बन्धुत्व का (प्रतिबुबोधथ) = प्रतिदिन बोध करते हो, हमारे बन्धुत्व को अपने साथ समझते हो, तो यह बन्धुत्व ऐसा होता है कि (यत्र) = जिसमें (प्रथमम्) = सबसे पहले तो हम (नाभा) = [ अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः ] यज्ञ में (संनसामहे) = संगत होते हैं। जितनी-जितनी हम प्राणसाधना करते हैं उतनी उतनी हमारी वृत्ति यज्ञ की ओर झुकती है। प्राणों के साथ हमारा सजात्य व बन्धुत्व यही है कि हम प्राणायाम के द्वारा प्राणसाधना में प्रवृत्त होते हैं और प्राणों के बल को बढ़ाते हैं । यह प्रवृद्ध प्राणशक्तिवाला पुरुष यज्ञों में प्रवृत्त होता है । [२] (तत्र) = वहाँ, उन यज्ञों में (अदिति:) = [अ+दिति] स्वास्थ्य का अखण्डन (नः) = हमारे (जामित्वम्) = बन्धुत्व को (दधातु) = धारण करे। हम स्वस्थ बने रहें और यज्ञात्मक कर्मों के करने में समर्थ रहें । वस्तुतः प्राणसाधना से जहाँ हमारी वृत्ति यज्ञिय बनती है, वहाँ हमारा स्वास्थ्य भी ठीक रहता है और हम उन यज्ञों के करने के योग्य बने रहते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम प्राणों के साथ अपना बन्धुत्व स्थापित करें, इस बन्धुत्व का परिणाम वह होगा कि हमारी वृत्ति यज्ञिय बनेगी और हम दीर्घायुष्य को प्राप्त करेंगे।