बुद्धि व ज्ञानगिरायें [ज्ञान - वाणियाँ]
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (मरुतः) = प्राणो ! (इन्द्र) = परमात्मन्! (देवा:) = विद्वान् आचार्यो ! (वरुण) = निर्देषता की देवते ! तथा मित्र-स्नेह की देवते ! (यूयम्) = आप सबने (यां धियम्) = जिस बुद्धि को (मे) = मेरे लिये (अददात) = दिया है, (ताम्) = उस बुद्धि को (पीपयत) = खूब बढ़ाओ उसी प्रकार बढ़ाओ, (इव) = जिस प्रकार (धेनुम्) = गौ को (पयसा) = दूध से आप्यायित करते हो । प्राणसाधना से तो बुद्धि सूक्ष्म होती ही है [मरुतः ] प्रभु का स्मरण बुद्धि को शुद्ध रखता है [इन्द्र] ज्ञानी आचार्यों का सम्पर्क ज्ञान बढ़ाने के लिये आवश्यक ही है [देवाः] । ज्ञानवृद्धि के लिये राग-द्वेष से ऊपर उठना भी जरूरी है [मित्र वरुण], इसीलिए वेद में विद्यार्थी के लिये कहते हैं कि 'प्रणीतिरभ्यावर्तस्व विश्वेभिः सखिभिः सह 'सब सहाध्यायियों के साथ प्रेम से वर्तो। [२] इस प्रकार हमारी बुद्धि 'मरुतों, इन्द्र, देवों तथा मित्र वरुण' की कृपा से आप्यायित होती है । और बुद्धि को आप्यायित करने के द्वारा हे मरुतो ! आप (गिर:) = ज्ञान की वाणियों को (रथे) = इस शरीर रथ में (कुवित्) = खूब ही (अधिवहाथ) = धारण करते हो । बुद्धि से ही इन ज्ञान की वाणियों को हम धारण करनेवाले बनते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ–‘प्राणसाधना, प्रभु स्मरण, आचार्योपासन व राग-द्वेषातीता' से हमारी बुद्धि तीव्र होती है, तीव्र बुद्धि से हम ज्ञानवाणियों को खूब समझने व धारण करनेवाले बनते हैं ।