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यां मे॒ धियं॒ मरु॑त॒ इन्द्र॒ देवा॒ अद॑दात वरुण मित्र यू॒यम् । तां पी॑पयत॒ पय॑सेव धे॒नुं कु॒विद्गिरो॒ अधि॒ रथे॒ वहा॑थ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yām me dhiyam maruta indra devā adadāta varuṇa mitra yūyam | tām pīpayata payaseva dhenuṁ kuvid giro adhi rathe vahātha ||

पद पाठ

यम् । मे॒ । धिय॑म् । मरु॑तः । इन्द्र॑ । देवाः॑ । अद॑दात । व॒रु॒ण॒ । मि॒त्र॒ । यू॒यम् । ताम् । पी॒प॒य॒त॒ । पय॑साऽइव । धे॒नुम् । कु॒वित् । गिरः॑ । अधि॑ । रथे॑ । वहा॑थ ॥ १०.६४.१२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:64» मन्त्र:12 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:8» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:12


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मरुतः) हे जीवन्मुक्त विद्वानों ! (इन्द्र) हे ज्ञानप्रकाशक आचार्य ! (वरुण) हे वरयिता उपदेशक ! (मित्र) हे प्रेरक अध्यापक ! (देवाः-यूयम्) विद्वानो तुम (यां-धियम्-अददात) जिस मेधा-ज्ञानबुद्धि को या कर्मबुद्धि को देते हो (तां पीपयत) उसे उसके फल से बढ़ाओ (पयसा-इव-धेनुम्) जैसे दूध से गोपाल गौ को प्रपूर्ण करता है, वैसे ही (गिरः-अधिरथे) विद्याओं-ज्ञानों को रमणीय मोक्ष में (कुवित्-वहाथ) बहुत प्रकार से प्रेरित करो, मोक्ष प्राप्त करने को भावित करो ॥१२॥
भावार्थभाषाः - जिज्ञासु को जीवन्मुक्तों, अध्यापकों, उपदेशकों एवं प्रमुख आचार्यों से शिक्षण पाकर अपनी ज्ञान-शक्ति और कर्मशक्ति को बढ़ाना चाहिए। अन्त में मोक्ष का अधिकारी बने ॥१२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

बुद्धि व ज्ञानगिरायें [ज्ञान - वाणियाँ]

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (मरुतः) = प्राणो ! (इन्द्र) = परमात्मन्! (देवा:) = विद्वान् आचार्यो ! (वरुण) = निर्देषता की देवते ! तथा मित्र-स्नेह की देवते ! (यूयम्) = आप सबने (यां धियम्) = जिस बुद्धि को (मे) = मेरे लिये (अददात) = दिया है, (ताम्) = उस बुद्धि को (पीपयत) = खूब बढ़ाओ उसी प्रकार बढ़ाओ, (इव) = जिस प्रकार (धेनुम्) = गौ को (पयसा) = दूध से आप्यायित करते हो । प्राणसाधना से तो बुद्धि सूक्ष्म होती ही है [मरुतः ] प्रभु का स्मरण बुद्धि को शुद्ध रखता है [इन्द्र] ज्ञानी आचार्यों का सम्पर्क ज्ञान बढ़ाने के लिये आवश्यक ही है [देवाः] । ज्ञानवृद्धि के लिये राग-द्वेष से ऊपर उठना भी जरूरी है [मित्र वरुण], इसीलिए वेद में विद्यार्थी के लिये कहते हैं कि 'प्रणीतिरभ्यावर्तस्व विश्वेभिः सखिभिः सह 'सब सहाध्यायियों के साथ प्रेम से वर्तो। [२] इस प्रकार हमारी बुद्धि 'मरुतों, इन्द्र, देवों तथा मित्र वरुण' की कृपा से आप्यायित होती है । और बुद्धि को आप्यायित करने के द्वारा हे मरुतो ! आप (गिर:) = ज्ञान की वाणियों को (रथे) = इस शरीर रथ में (कुवित्) = खूब ही (अधिवहाथ) = धारण करते हो । बुद्धि से ही इन ज्ञान की वाणियों को हम धारण करनेवाले बनते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ–‘प्राणसाधना, प्रभु स्मरण, आचार्योपासन व राग-द्वेषातीता' से हमारी बुद्धि तीव्र होती है, तीव्र बुद्धि से हम ज्ञानवाणियों को खूब समझने व धारण करनेवाले बनते हैं ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मरुतः) हे जीवन्मुक्ताः ! (इन्द्र) हे ज्ञानप्रकाशकाचार्य ! (वरुण) हे वरयिता उपदेशक ! (मित्र) हे प्रेरक ! अध्यापक ! (देवाः-यूयम्) विद्वांसो यूयं (यां धियम्-अददात) यां मेधां ज्ञानबुद्धिं कर्मबुद्धिं ददध्वे (तां पीपयत) तां तत्फलेन वर्धयत (पयसा-इव धेनुम्) यथा दुग्धेन गां गोपालः प्रपूर्णां करोति तद्वत् (गिरः-अधि रथे कुवित्-वहाथ) वाचो विद्याः-ज्ञानानि रमणीये मोक्षेऽधि बहुप्रकारेण प्रेरयत मोक्षं प्रापयितुं भावयत ॥१२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Maruts, vibrancies of divinity, O Indra, lord of honour and power, O divinities of nature and humanity, O Varuna, spirit of judgement, Mitra, spirit of love and friendship, let my intelligence and imagination, which is your gift to me, grow and overflow with exuberance like the cow’s milk. You do always carry our prayers on the chariot and convey these to the Lord Supreme, don’t you?