पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार हमारा शरीर-रथ ठीक होगा तो (नः) = हमारे लिये (पथ्यासु) = पथ के योग्य समतल भूभागों में (स्वस्ति) = कल्याण हो । धन्वसु मरु प्रदेशों में हमारे लिये कल्याण हो । तथा (अप्सु) = जलमय प्रदेशों में भी (स्वस्ति) = कल्याण हो । वस्तुतः प्राणसाधना के ठीक प्रकार से होने पर सब स्थानों का जलवायु हमारे अनुकूल होता है। पूर्ण स्वस्थता में हमें बल प्राप्त होता है, बल हमें सुखमय स्थिति में रखता है। (स्वर्वति) = स्वर्गवाले वृजने शत्रुओं के पराभूत करनेवाले बल के होने पर हमारा कल्याण हो। [२] इस प्रकार स्वस्थ व सबल होकर हम घरों में कल्याणपूर्वक रहें । (नः) = हमारे (योनिषु) = उन घरों में, जिनमें कि पुत्रकृथेषु पुत्रों का निर्माण होता है, (स्वस्ति) = कल्याण हो । मनुष्य गृहस्थ बनता है, सन्तान के लिये । सो घर में सर्वमहान् कर्त्तव्य यही होता है कि सन्तान का उत्तम निर्माण किया जाए। हे (मरुतः) = प्राणो ! इन घरों में हमें (राये) = ऐश्वर्य के लिये (दधातन) = धारण करो जिससे (स्वस्ति) = हमारा कल्याण हो । निर्धनता भी घर के लिये दुर्गति का कारण बनती है। प्राणसाधक पुरुष उचित मात्रा में धन का संग्रह कर ही पाता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणसाधना के होने पर हमें सर्वत्र जलवायु की अनुकूलता रहती है। हमें शत्रुओं को पराभूत करनेवाली शक्ति प्राप्त होती है। हमारे सन्तान उत्तम होते हैं और निर्धनता हमारे से दूर रहती है ।