'अवसे स्वस्तये' [कुटिलता व हिंसा से दूर]
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (विश्वे) = सब (यजत्राः) = संगतिकरण योग्य (देवाः) = देवो! आप (ऊतये) = रक्षण के लिये (अधिवोचत) = हमें अधिक्येन उपदेश दीजिये और (नः) = हमें (दुरेवायाः) = दुर्गति-दुराचरण से तथा (अभिह्रुतः) = कुटिलता से व हिंसा से (त्रायध्वम्) = बचाइये । हम दुरितों व हिंसा के मार्ग से बचकर ही चलें। हमारा जीवन आपके दिये गये ज्ञान से पवित्र बने और उस पवित्र जीवन में दुरितों व हिंसा का कोई स्थान न हो। इस प्रकार आपका दिया हुआ ज्ञान हमारे रक्षण के लिये हो जाता है। [२] हे शृण्वतो (देवाः) = हमारी प्रार्थना को सुननेवाले देवो ! हम (वः) = आपको (सत्यया) = सत्य (देवहूत्या) = देवहूति से, देवों को पुकारने के ढंग से, (हुवेम) = पुकारें। देवों को पुकारने का सत्य प्रकार यही होता है कि हम नम्रता व जिज्ञासा की भावनावाले होकर उनके समीप जाएँ। इस प्रकार उनके समीप हम जाएँगे तो वे हमें वह सत्य ज्ञान प्राप्त करायेंगे जो हमारे अवसे रक्षण के लिये होगा और (स्वस्तये) = उत्तम स्थिति के लिये होगा। यह ज्ञान हमें वासनाओं से बचानेवाला होगा और नीरोगता व ऐश्वर्य के द्वारा हमारे जीवन की उत्तम स्थिति का कारण बनेगा।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-हम ज्ञानियों के समीप नम्रता से पहुँचे और उस ज्ञान को प्राप्त करें जो हमारे रक्षण व कल्याण के लिये हो ।