पदार्थान्वयभाषाः - [१] (सहस्रदा) = [स+हस्+दा] आनन्दपूर्वक देनेवाला, देने में आनन्द को अनुभव करनेवाला अथवा खूब दान करनेवाला, हजारों के देनेवाला (ग्रामणीः) = इन्द्रिय समूह का प्रणयन करनेवाला (मनुः) = ज्ञानी पुरुष (मा रिषत्) = हिंसित न हो । हिंसित न होने का मार्ग यही है कि हम [क] दानशील हों, [ख] इन्द्रिय समूह को यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रखें, [ग] ज्ञानी विचारशील बनें। [२] (अस्य) = इस मनु की दक्षिणा दानवृत्ति (सूर्येण) = सूर्योदय के साथ ही (यतमाना) = लोकहित के लिये उद्योग करती हुई एतु गतिमय हो, प्रवृत्त हो । अर्थात् यह ज्ञानी पुरुष दिन के प्रारम्भ से ही दान की वृत्तिवाला बने, प्रातः काल को दान से ही प्रारम्भ करे। इसका यह दान ' देशकालपात्र' का विचार करके दिया जाए जिससे वह सबके हितकारी कारण बने, अहित का नहीं। अपात्र में दिया गया दान उसके जीवन को और अधिक विकृत करनेवाला ही हो जाता है। [३] जो दान की वृत्ति के द्वारा अपने जीवन को उस सब कुछ देनेवाले प्रभु के समान ही बनाने के लिये बलशील होता है उस (सावर्णे:) = प्रभु के समान वर्णवाले की (आयुः) = आयु को (देवा:) = सब देव (प्रतिरन्तु) = बढ़ानेवाले हों। देवों की अनुकूलता से हम (वाजम्) = अन्न, बल का (असनाम) = उपभोग करें ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- दानी की अन्न, धन का अभाव नहीं हो सकता ।