ज्ञानदीप्ति व क्रियाशीलता
पदार्थान्वयभाषाः - 'गत मन्त्र के अनुसार जो व्यक्ति प्रभु के रक्षण में चलता है वह कैसा बनता है ?' इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि (यः) = जो (भानुभिः) = ज्ञान की दीप्तियों से (विभाव) = विशेष रूप से ही दीप्तिमान् होता है, (अग्निः) = गतिशील होता हुआ (देवेभिः) = सब दिव्यगुणों से (विभाति) = सुभूषित जीवनवाला होता है । (ऋतावा) = यह सदा ऋत का रक्षण व पालन करता है, इसका कोई भी कार्य अनृत को लिये हुए नहीं होता। (अजस्त्र:) = यह सतत कार्यों को करनेवाला होता है, 'निरग्नि व अक्रिय' नहीं हो जाता, क्रियाशील बना रहता है। वह जो सख्या उस सखिभूत परमात्मा के साथ (आविवाय) = अपने कर्त्तव्यों की ओर जानेवाला होता है। प्रभु का स्मरण करता है और कर्मशील होता है। अपने लिये इसे कुछ करने को नहीं भी होता तो भी (सखिभ्यः) = अपने मित्रों के कार्यों के लिये यह (अपरिहृतः) = अपरिहिंसित व अपरिकान्त होता है । उनके हितसाधन को करता हुआ यह थक नहीं जाता। अनथक रूप से कार्य में उसी प्रकार सदा प्रवृत्त रहता है जैसे कि उसका पिता प्रभु 'स्वाभाविक क्रिया' वाला है। यह इस प्रकार क्रियाशील होता है (न) = जैसे (अत्यः) = एतत गमनशील (सप्तिः) = घोड़ा। घोड़ा खूब गतिशील है, 'अनध्वा वाजिनां जरा' मार्ग पर न चलना पड़े तो घोड़ा शीघ्र बूढ़ा हो जाता है। इसी प्रकार इस प्रभु-भक्त को भी (अ) = क्रिया निर्बल करती प्रतीत होती है, वह क्रिया में ही शक्ति का अनुभव करता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - उत्कृष्ट ज्ञान की तेजस्विता व क्रियाशीलता ही मनुष्य के जीवन को आदर्श बनाती है।