पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) = ये प्रभु (स) = वे हैं (यस्य अग्नेः) = जिस अग्रेणी प्रभु के (अवोभिः) = रक्षणों से (शर्मन्) = अपने गृह में अथवा आनन्द में [शर्म सुखानि] (एधते) = वृद्धि को प्राप्त करता है। प्रभु के रक्षण ही हमारा वर्धन करनेवाले हैं, प्रभु के रक्षण से दूर होते ही हम विनष्ट होते हैं । 'वृद्धि कौन प्राप्त करता है ?' इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि (जरिता) = स्तोता । प्रभु के गुणों के स्तवन करनेवाला वृद्धि को प्राप्त करता है । यह गुणस्तवन उसके सामने सदा एक ऊँचे लक्ष्य को उपस्थित करता है । (अभिष्टौ) = [यागे कृते] यज्ञों के होने पर ही हम वृद्धि को प्राप्त करते हैं। प्रभु का स्तवन करते हुए, प्रभु के आदेशानुसार, जब हम यज्ञों में प्रवृत्त होते हैं तभी हमारी वृद्धि होती है । वृद्धि को वह प्राप्त करता है (यः) = जो कि (ज्येष्ठेभिः भानुभिः) = उत्कृष्ट ज्ञानदीप्तियों को प्राप्त करने के हेतु से (ऋभूणां) = तत्त्व द्रष्टा ज्ञानियों को (पर्येति) = परिक्रमा करता है, उनको आदर देता हुआ उनके चरणों में उपस्थित होता है । एवं यह 'स्तोता, यज्ञशील, ज्ञानियों का उपासक' वृद्धि को प्राप्त करता है, और (परिवीतः) = ज्ञान से परिवृत हुआ हुआ, ज्ञानियों के सम्पर्क से खूब ज्ञान को प्राप्त हुआ- हुआ यह (विभावा) = विशिष्ट ही दीप्ति वाला होता है। इस ब्रह्मनिष्ठ पुरुष की भान्ति अद्भुत ही होती है, यह प्रभु के तेज के अंश से चमक रहा होता है, प्रभु-सा बन गया होता है [ब्रह्म इव] ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम स्तोता - यज्ञशील ज्ञानियों के सम्पर्क में रहनेवाले, ज्ञान से परिवृत बनकर प्रभु के रक्षणों से निरन्तर वृद्धि को प्राप्त करते हैं ।