पदार्थान्वयभाषाः - [१] जीवन की निर्दोषता के लिए प्रस्तुत मन्त्र में तीन महत्त्वपूर्ण औषधों का संकेत है। (क्षमा) = इस पृथिवी पर (एककम्) = [एक+कं] एक सुख को देनेवाली (भेषजा) = औषध (चरिष्णु) = [चरति] विचरण करती है, विद्यमान है। यह 'मधु' के रूप में है। यह मधु क्षीणता व स्थूलता दोनों को ही दूर करके शरीर के यथेष्ठ स्थिति में लानेवाला है। स्वयं मट्टी भी अद्भुत औषध है, यह सब विषयों का चूषण कर लेती है और शरीर को नीरोग बनाने में अद्भुत चमत्कार को प्रकट करती है। [२] 'दिवः' शब्द यहाँ अन्तरिक्ष व द्युलोक दोनों के लिये प्रयुक्त हुआ है। (दिवः) = इस अन्तरिक्ष से (द्वके) = दूसरी सुखप्रद औषध अब [ चरन्ति ] नीचे इस पृथ्वी पर गति करती है । यह 'मेघ-जल' के रूप में है । मेघ-जल के गुण इस शब्द से ही स्पष्ट हैं कि इसे 'अमर- वारुणी ' कहा गया है, यह देवताओं की मद्य के समान है । [३] (दिवः) = द्युलोक से (त्रिका) = तीसरी सुखप्रद (भेषजा) = औषध (अव चरन्ति) = इस पृथ्वीलोक पर आती है। यह सूर्य किरण के रूप में है । यह सूर्य किरण शरीर में आनेवाले सब रोगकृमियों का संहार करके शरीर को नीरोग बनाती है। यह शरीर में स्वर्ण के इञ्जक्शन-सा कर देती है। शरीर में विटामीन डी की उत्पत्ति करके शरीर में कैल्सियम की ठीक खपत करानेवाली ये होती हैं। इस प्रकार ये सूर्य किरणें शरीर के रोगों को नष्ट करती हैं। [४] (द्यौ:) = द्युलोक (पृथिवी) = अन्तरिक्षलोक तथा (क्षमा) = पृथिवीलोक (यद् रपः) = जो भी दोष है उसे अपभरताम् दूर करें। (किंचनरपः) = नाममात्र भी दोष (ते) = तुझे (मा उ सु अममत्) = मत ही हिंसित करें।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- पृथिवी का 'मधु', अन्तरिक्ष का वृष्टिजल तथा द्युलोक की सूर्य किरणें शरीर को निर्दोष बना करके हमारे जीवनों को सुखी बनाते हैं ।