पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के पितर व देव (सहोभिः) = शक्तियों के द्वारा (विश्वं रजः) = सम्पूर्ण लोक में (परिचक्रयुः) = विचरण करते हैं। 'शरीर' पृथिवीलोक है, 'हृदय' अन्तरिक्षलोक है और 'मस्तिष्क' लोक है। पितर व देव अपनी त्रिलोकी को सशक्त बनाते हैं। शरीर की दृढ़ता, हृदय की विशालता, मस्तिष्क की उज्ज्वलता इन्हें अलंकृत जीवनवाला बना देती है। विशेषकर ये अपने हृदयान्तरिक्ष को विशाल बनाते हैं, उसमें सहनशक्ति होती है। इनके हृदय में सभी के लिये स्थान होता है, सबका जिसमें प्रवेश है वही हृदय 'विश्वं रजः ' कहलाता है। [२] ये लोग (पूर्वाधामानि) = पालन व पूरण करनेवाले तेजों को (अमिता) = अमितरूप में अत्यधिक (मिमानाः) = बनानेवाले होते हैं। ये तेज ही इनको विकृतियों से बचानेवाले होते हैं । इनके शरीर स्वस्थ रहते हैं, मन भी क्रोध, ईर्ष्या आदि से रहित बने रहते हैं और इनके मस्तिष्क सदा ज्ञानोज्ज्वल होते हैं । [३] ये अपने (तनूषु) = शरीरों में (विश्वाभुवनानि) = सब लोकों को (नियेमिरे) = नियम में करते हैं। इनकी इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि सब संयत होते हैं। और परिणामतः (पुरुध) = बहुत प्रकार से (प्रजाः) = अपने जीवन की शक्तियों के विकासों को (अनु) = अनुक्रम से (प्रासारयन्त) = फैलानेवाले होते हैं। सहनशक्ति से तेजस्विताओं में वृद्धि होती ही है, क्रोध शक्ति को भस्म कर देता है । सहनशक्ति की विपरीत वस्तुएँ 'ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध' हैं। सहनशक्ति तेजस्विता का वर्धन करती है तो क्रोध उसका ह्रास करता है। सहनशक्ति से विकास होता है, क्रोध से संहार ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सहनशीलता व संयम से हम तेजस्वी बनें और विकास को प्राप्त हों ।